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एस धम्मो सनंतनो
जब उसके कान में यह गीत पड़ा कि यह कौन है? मालिक मैं हूं, यह देने वाला कौन है? __ उसने हफीज को पकड़वा बुलाया। उसने कहा कि हद्द हो गयी। पहली तो बात यह कि किसी स्त्री के ठोड़ी पर तिल है, यह इस योग्य नहीं कि तुम बुखारा और समरकंद दे दो। फिर दूसरी बात यह कि पहले यह भी तो पक्का कर लो कि बुखारा-समरकंद तुम्हारे बाप के हैं, जो तुम दे रहे हो? ये मेरे हैं। मैं अभी जिंदा हूं। तुमने मुझसे पूछे बिना यह कविता कैसे लिखी? ___हफीज हंसने लगा इस मूढ़ता पर। उसने कहा, सुनो! पहले तो जिसके तिल की बात है, बुखारा-समरकंद उसी के हैं। तुम नाहक बीच में उपद्रव कर रहे हो। तुम आज हो, कल न रहोगे। जिसके तिल की बात है, बुखारा-समरकंद उसी के हैं—वह तो परमात्मा की बात कर रहा है, सूफी फकीर परमात्मा.को प्रेयसी के रूप में बात करते हैं और फिर दूसरी बात, उसी की चीज उसी को लौटा देने में क्या लगता है ? न बुखारा-समरकंद तुम्हारे हैं, न मेरे, वह मुझे भी पता है। मगर जिसके हैं उसी को मैं लौटा रहा हूं, तुम बाधा डाल रहे हो; देखो, पीछे पछताओगे। और हफीज ने कहा, सुनो! मैं गरीब आदमी हूं, लेकिन मेरा दिल तो देखो! कुछ मेरे पास नहीं, बुखारा-समरकंद दे दिए। तुम्हारे पास सब है, अपनी कृपणता तो देखो!
हफीज की ऐसी बात सुनकर कहते हैं तैमूरलंग भी हंसने लगा। अन्यथा वह हंसने वाला आदमी न था। ___ जो अपना नहीं है, उसको अपना मान लेने में बंधन है। और जो अपना नहीं है, उसको अपना मान लेने में न केवल बंधन है, बल्कि दूसरे से प्रतिस्पर्धा है, संघर्ष है। सारे जगत की कलह यही तो है कि यहां सभी ने चीजों को अपना मान रखा है, जो उनकी नहीं हैं। असली मालिक तो चुप है। बुखारा-समरकंद उसी के हैं। लेकिन तैमूरलंग, यह लंगड़ा बीच में खड़ा है। लंगड़ा था इसलिए लंग। लंगड़ा है, लेकिन सारी दुनिया पर कब्जे की आकांक्षा है। सभी लंगड़ों की यही आकांक्षा है। यह परमात्मा की चीज भी परमात्मा को देने में इसको कष्ट हो रहा है। देना भी कहां है? उसकी ही है। यह तो एक बात थी, कहने का एक ढंग था, एक लहजा था।
जैसे-जैसे तुम्हारा होश बढ़ेगा, तुम्हें लगेगा अपना कुछ भी नहीं है। अपने सिवाय अपना कुछ भी नहीं है। और आखिर में तुम पाओगे कि वह जो अपना है, वह भी अपना नहीं है, वह भी परमात्मा का है—तब प्रज्ञा।।
समाधि तक भी तुम्हें अपना थोड़ा बोध रहेगा। सारी चीजों से संबंध छूट जाएगा, लेकिन स्वयं से संबंध बना रहेगा। प्रज्ञा में वह संबंध भी छूट जाता है। इसलिए बुद्ध ने कहा, आत्मा समाधि तक, उसके बाद अनात्मा। अत्ता समाधि तक–कि तुम हो; फिर एक ऐसी भी घड़ी आती है जहां तुम भी नहीं हो-बूंद सागर में गिर गयी।
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