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________________ एस धम्मो सनंतनो बुद्ध-पुरुषों ने धीरे-धीरे थोड़ी-थोड़ी बातें उसके संबंध में कही हैं। थोड़े इशारे । बुद्ध का यह इशारा गहरे से गहरे इशारों में एक है । बुद्ध कहते हैं, समाधि के भी पार उठने की एक दशा है। समाधि का उपयोग इतना ही है कि उससे चित्त मिट जाए। रोशनी को इसीलिए चाहा था कि अंधेरा मिट जाए। कोई रोशनी को पकड़कर थोड़े ही बैठ जाना है। रोशनी के भी पार जाना है । अंधेरे के पार तो जाना ही है, रोशनी के भी पार जाना है। संसार के तो पार जाना ही है, संसार के विपरीत में जो तुमने संन्यास स्वीकार किया, उसके भी पार जाना है। परम संन्यासी वही है जिसका संन्यास भी विसर्जित हो गया । परम ध्यानी वही है जिसका ध्यान भी पीछे छूट गया, से भी आगे निकल आया। संसार तो छोड़ा ही, स्वप्न तो छोड़े ही, जागरण को पकड़ा नहीं, वह भी छोड़ दिया। पूरा द्वंद्व चला गया। निर्द्वद्व हुए। अद्वैत हुआ । 'जब पंडित प्रमाद को अप्रमाद से हटा देता है, तब वह प्रज्ञारूपी प्रासाद पर चढ़कर...।' तब पहली दफा प्रज्ञा के शिखर पर चढ़ाई शुरू होती है । . 'स्वयं अशोक और धीर बना... ।' अब न तो उसे कोई दुख होता, न कोई सुख । ध्यान में सुख है, गैर-ध्यान में दुख है। इसलिए बुद्ध ने कहा, प्रमादरहित व ध्यान में लगा पुरुष विपुल सुख को प्राप्त होता है। लेकिन सुख भी बहुत सुख नहीं है, महासुख नहीं है। जो मिला है वह कितना ही बड़ा हो, अनंत नहीं हो सकता । अनंत तो वही हो सकता है जो मिला ही नहीं कभी। अनंत तो वही हो सकता है जिसकी शुरुआत भी कभी नहीं हुई। उसी का अंत भी न होगा। तो बुद्ध कहते हैं, 'प्रज्ञारूपी प्रासाद पर चढ़कर स्वयं अशोक और धीर बना, संसार की शोकाकुल प्रजा को उसी प्रकार देखता है जिस प्रकार कोई पर्वत पर चढ़कर नीचे भूमि पर खड़े लोगों को देखे । ' 'प्रमादी लोगों में अप्रमादी और सोए लोगों में बहुत जाग्रत पुरुष वैसे ही आगे निकल जाता है जैसे तेज घोड़ा मंद घोड़े से आगे निकल जाता है।' इन प्रतीकों में उलझ मत जाना। क्योंकि मजबूरी है बुद्धपुरुषों की भी, शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। शब्द तुम्हारे हैं, और तुम्हारे रंग में रंगे हैं । बुद्ध भी उनका उपयोग करें तो भी तुम्हारे अर्थ की धूल उन शब्दों पर जम जाती है। जैसे बुद्ध कहते हैं, 'प्रमादी लोगों में अप्रमादी और सोए लोगों में बहुत जाग्रत पुरुष... ।' 218 अप्पमत्तो पमत्तेसु सुत्तेसु बहुजागरो । जो बहुत जागा हुआ है सोए हुए लोगों में, प्रमादियों में जो अप्रमादी है, वह
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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