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प्रेम है महामृत्यु
जैसे कुछ भी नहीं है; एक शांति गहन होने लगी है। यह पहली अवस्था है।
दूसरी अवस्था को झेन में सतोरी कहते हैं। दूसरी अवस्था तब है जब यह शून्य कभी-कभी इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि इस शून्य का बोध होता है, जागरण होता है। अचानक एक क्षण को जैसे बिजली कौंध जाए, ऐसा भीतर शून्य कौंध जाता है। मगर ऐसी कौंध कौंधती है, समाप्त हो जाती है। बिजली कौंधी, थोड़ी देर को रोशनी हो गयी क्षणभर को-फिर रोशनी खो गयी, फिर अंधेरा हो गया।
सतोरी कई घट सकती हैं।
फिर तीसरी अवस्था समाधि की है। समाधि ऐसी अवस्था है, बिजली जैसी नहीं, सूरज के उगने जैसी। उग गया तो उग गया। फिर ऐसा नहीं कि फिर बुझा, फिर उगा, फिर डूबा-ऐसा नहीं है। उग गया।
समाधि अंतिम अवस्था है। फल पक गया। समाधि उस क्षण का नाम है जो निर्वाण के एक क्षण पहले की है : फल पक गया, बस अब टूटा, अब टूटा। और तब फल टूट गया। फल का टूट जाना निर्वाण है। - लेकिन इस निर्वाण तक पहुंचने में पहले ध्यान या प्रेम के माध्यम से एक शून्यता साधी जाएगी; एक भीतर ठहरना आ जाएगा; बाहर से हटना हो जाएगा; ऊर्जा भीतर की तरफ बहने लगेगी; बाहर एक तरह की अनासक्ति छा जाएगी; करने को सब किया जाएगा लेकिन करने में कोई रस न रह जाएगा; हो जाए तो ठीक, न हो जाए तो ठीक; सफलता हो कि असफलता, सुख मिले कि दुख-बराबर होगा; व्यक्ति ऐसे जीएगा जैसे नाटक में अभिनेता; अभिनय करेगा बस।।
यह संन्यास का पहला कदम है : अभिनेता हो जाना। करते सब वही हैं जैसा कल भी करते थे, लेकिन अब ऐसा करते हैं जैसा अपना कोई लेना-देना नहीं है। जरूरत है, कर रहे हैं। कल करते थे किसी गहरी आसक्ति और लगाव से, अब करते हैं केवल कर्तव्य से।
फिर दूसरी अवस्था है, जब कभी-कभी झलकें मिलेंगी। अचानक द्वार खुल जाएगा। अचानक तुम रूपांतरित हो जाओगे; एक तल से दूसरे तल पर पहुंच जाओगे। वह दिखायी पड़ेगा दूर का शिखर-बादल हट गए हैं और गौरीशंकर का उत्तुंग शिखर दिखायी पड़ गया है। बादल हट गए हैं और चांद दिखायी पड़ गया है। फिर बादल घिर गए हैं। ऐसा कई बार होगा।
झेन फकीर रिझाई के संबंध में कहा जाता है कि उसे अट्ठारह सौ सतोरी अनुभव हुईं समाधि के पहले। अट्ठारह सौ भी सिर्फ प्रतीक हैं, अट्ठारह हजार भी हो सकती हैं। तो कितनी ही बार झलक हो सकती है। लेकिन झलक सिर्फ खबर है इस बात की कि मैं करीब आ रहा हूं, करीब आ रहा हूं लेकिन अभी आ नहीं गया हूं। मंजिल दिखायी पड़ने लगी है। फिर कई बार खो भी जाती है मंजिल, क्योंकि मन के भावावेग बदलते रहते हैं। कभी ध्यान सध जाता है किसी दिन, मन प्रफुल्ल होता
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