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________________ एस धम्मो सनंतनो इतने से काम न चलेगा—'मौत भी आती नहीं, सांस भी जाती नहीं।' सांस भी चली जाए, मौत भी आ जाए, तो भी काम न चलेगा। जब प्रेम में मरने की घड़ी आती है तो आदमी सोचता है, इससे तो बेहतर यह होता कि शरीर ही मर जाता, श्वास ही चली जाती। वह भी कम खतरनाक मालूम पड़ता है। यही तो अड़चन है प्रेम की-तपश्चर्या यही है कि प्रेम भीतर से मार डालेगा। वह जो भीतर मैं है, वह जब चला जाएगा, फिर श्वास भी आती रहेगी तो भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा। तुम न बचे। ___मेरे साथ जो चलने को राजी हुए हैं, वे मिटने को ही राजी हुए हैं। तो ही मेरे साथ चलना हो सकता है। और स्वाभाविक है कि अगर मैं तुम्हें राजी करना चाहूं मिटने के लिए, तो मैं तुमसे दूर होता जाऊं और खोता चला जाऊं। तुम मुझे खोजते हुए आगे बढ़ते चले आओ और एक दिन तुम पाओ, कि मैं भी खो गया हूं और मुझे खोजने में तुम भी खो गए हो। 'तुम न जाने किस जहां में खो गए।' यही तो प्रेम की मंजिलें हैं, यही तो उसके आगे के इम्तिहान हैं। सितारों के आगे जहां और भी हैं अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं आखिरी प्रेम का इम्तिहान यही है कि वहां प्रेमी खो जाता है। और जिस दिन खोता है उसी दिन पाता है, सब मिल गया। इसलिए प्रेम की भाषा गणित की भाषा नहीं है। प्रेम की भाषा हिसाब की भाषा नहीं है। प्रेम की भाषा तो पागलपन की भाषा है, दीवानगी की भाषा है, मतवालेपन की भाषा है। तो तरु से मैं कहूंगा, बजाय यह सोचने के कि 'तुम न जाने किस जहां में खो गए'; बजाय यह सोचने के कि 'मौत भी आती नहीं, सांस भी जाती नहीं, दिल को यह क्या हो गया'; सोचो आरजू तेरी बरकरार रहे दिल का क्या है रहा न रहा सब खो जाए, तो भी जो अमृत है वह तो नहीं खो जाता है। वही खोता है जो खो जा सकता है। और जो खो जा सकता है, वह जितनी जल्दी खो जाए उतना अच्छा है। क्योंकि जितनी देर उलझे रहे उतनी ही मुसीबत! जितनी देर उलझे रहे उतना ही समय गंवाया। जितनी जल्दी जागे उतना अच्छा। जितनी देर सोए उतनी ही रात, उतना ही व्यर्थ। ध्यान रहे कि मिटने की जितनी तैयारी होगी और मिटना पीड़ापूर्ण है, इसे जानकर-उतनी ही जल्दी पीड़ा की रात का अंत आ जाता है। जब तक तुम नहीं मिटे हो तभी तक पीड़ा मालूम होती है क्योंकि मिटना है...मिटना है...मिटते जाना है। जल्दी करो, मिट जाओ। स्वीकार कर लो मृत्यु को। वह भीतर जो एक 190
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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