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________________ जागकर जीना अमृत में जीना है फिर कपड़ा पुराना होने लगा, जराजीर्ण होने लगा, और तुमने समझा कि मैं पुराना और जराजीर्ण हो गया। ___यह तो ऐसे है कि जैसे कोई यात्री ट्रेन में यात्रा करे, पूना स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हो तो वह समझे कि मैं पूना। फिर बंबई गाड़ी पहुंच जाए तो वह समझे कि मैं बंबई। ये तो शरीर की यात्रा के स्टेशन हैं। कभी बीमार, कभी स्वस्थ। कभी रुग्ण, कभी रुग्ण नहीं। कभी जन्म, कभी मृत्यु। ये तो शरीर के पड़ाव हैं। लेकिन प्रमाद गहरा है, और छोटी-छोटी बात में छिपा है। भूख लगती है, तुम कहते हो, मुझे भूख लगी। ज्ञानी कहेगा, शरीर को भूख लगी। तुम्हें क्या भूख लगेगी? तुम्हें कैसे भूख लगेगी? शरीर की जरूरत है। शरीर के लिए रोज नया पदार्थ चाहिए, ताकि शरीर अपने को सक्रिय रख सके, शक्तिवान रख सके। भूख लगती शरीर को, तुम्हें नहीं। प्यास लगती है शरीर को, तुम्हें नहीं। और जब तुम भोजन करते हो तब तुम्हारी आत्मा में थोड़े ही जाता है? जब तुम पानी पीते हो तब तुम्हारी आत्मा में थोड़े ही जाता है ? शरीर से ही गुजरता है, शरीर से ही निकल जाता है। सिर में दर्द होता है तो तुम मान लेते हो कि मुझे दर्द हो रहा है। तुम दर्द से अलग हो। ____ मैं एक आदमी का जीवन पढ़ रहा था, एक अमेरिकन कवि का। कार का एक एक्सीडेंट हो गया और उसका हाथ पूरा पिचल गया। भयंकर पीड़ा थी उसे, अस्पताल भी बहुत दूर था। जिस राह से वे गुजर रहे थे, यात्रा को गए थे किसी जंगल की, वहां तक पहुंचने में तो समय लगेगा। उसकी पीड़ा असह्य थी। उसकी पत्नी ने कहा, सुनो! मैं एक किताब पढ़ रही हूं। वह कार में बैठी किताब पढ़ रही थी। झेन के ऊपर एक किताब थी। ध्यान के ऊपर एक किताब थी। उसने कहा कि इसमें बुद्ध का एक सूत्र दिया हुआ है। कर के देख लो, हर्ज क्या है? बुद्ध अपने भिक्षुओं को एक सूत्र दिए थे कि जब तुम्हें पीड़ा हो, दर्द हो, चोट लगे, तो ऐसा मत मान लेना कि मुझे दर्द हो रहा है, या मुझे पीड़ा लगी है। उसी मान्यता से उपद्रव है। तुम आंख बंद कर लेना, अगर हाथ में चोट लगी या सिर में दर्द है, तो सारी चेतना को वहीं इकट्ठी कर लेना। जैसे सारी चेतना की ज्योति-किरणें इकट्ठी हो गयीं, और वहीं एक ही जगह फोकस हो गया। वहीं केंद्रित कर लेना, सिरदर्द हो रहा है तो वहीं केंद्रित कर लेना, और पूरी तरह गौर से सिरदर्द को देखना। इसी देखने में तुम अलग हो जाओगे-देखने वाला और जो दिखायी पड़ रहा है, वह अलग हो जाएगा। और जब तुम्हारा दर्द पूरी तरह दिखायी पड़ने लगे, तब सिर्फ तीन दफे कहना, दर्द...दर्द...दर्द... । भीतर ही कहना, पर बड़े सजगता से कहना, दर्द को देखते हुए कहना-दर्द! यह मत कहना कि मुझे दर्द हो रहा है, वही तो सम्मोहन है जिसमें आदमी उलझ जाता है। तुम सिर्फ इतना कहना, यह रहा दर्द... यह रहा दर्द...यह रहा दर्द...। तीन बार दर्द-दर्द कहना और समझना कि दर्द वहां है। और बुद्ध कहते हैं कि दर्द विलीन हो जाएगा। 165
SR No.002378
Book TitleDhammapada 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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