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और गंतव्य भी तुम्ही हो।'
आज 2500 वर्ष के अंतराल के बाद पहली बार, ओशो जैसे रहस्यदर्शी युगपुरुष ने हमें यह स्पष्ट किया है कि गौतम बुद्ध को समझने के लिए हमें अब स से ही आरंभ करना होगा—अर्थात् हमें सर्वप्रथम हमारे भीतर सतत चल रहे वार्तालाप को देखना होगा, हमारे अचेतन में चल रहे उपद्रव को समझना होगा, हमारे आवेगों और संवेगों की तीव्रता को पहचानना होगा, प्रतिपल हमारे इर्द-गिर्द होने वाली घटनाओं की जांच करनी होगी। अन्य शब्दों में, बिना किसी भारी धार्मिक या आध्यात्मिक बोझ के नीचे दबे या धर्म और अध्यात्म का हवाला दिए या उसकी आड़ में छिपे, अपने जीवन के अनुभवों को कैसे देखा और समझा जाए, हमें यह सर्वप्रथम जानना होगा।
यह तभी संभव है जब हम किसी भी निश्चित ध्येय या लक्ष्य प्राप्ति के पागलपन से मुक्त हो जाएं, "सुख और सुरक्षा पाने की दौड़ से अलिप्त रहें, बने-बनाए उत्तर पाने की तलाश छोड़ दें। गौतम बुद्ध की वाणी में प्रवेश करने से पूर्व ओशो हमें सावधान करते हैं: ___'बुद्ध को समझने में ध्यान रखना, सिद्धांत या सिद्धांतों के आसपास तर्कों का जाल उन्होंने जरा भी खड़ा नहीं किया है। उन्हें कुछ सिद्ध नहीं करना है। न तो परमात्मा को सिद्ध करना है, न परलोक को सिद्ध करना है। उन्हें तो आविष्कृत करना है, निदान करना है। मनुष्य का रोग कहां है, मनुष्य का रोग क्या है, मनुष्य दुखी क्यों है? यही बुद्ध का मौलिक प्रश्न है।...बुद्ध का मनोविज्ञान परम जीवन का मनोविज्ञान है। उस जीवन का, जिसका फिर कोई अंत नहीं। शाश्वत का, सनातन का। एस धम्मो सनंतनो। वे उस धर्म और नियम की बात करते हैं, जिससे सनातन उपलब्ध हो जाए, शाश्वत उपलब्ध हो जाए।'
धम्मपद के सूत्र हमें जगाने के सूत्र हैं। हमारा मूल स्वरूप, हमारा मूल स्वभाव क्या है, इसका बोध कराते हैं ये सूत्र। वह क्या है जिसके हम बने हैं? वह क्या है जो हमारे मनुष्यत्व का अभिन्न अंग है, इसकी खोज में ले चलते हैं ये सूत्र। इन सूत्रों में नये प्राण फूंककर ओशो एक नये अध्याय का आरंभ करते हैं। एक ऐसा अध्याय जिसमें धर्म की निपट कोरी, निर्जीव चर्चा नहीं है, बल्कि चेतना को जाग्रत करने की एक ऐसी जीवंत प्रक्रिया का रसीला निरूपण है जो व्यक्ति का आमूल रूपांतरण कर दे।
कहते हैं, कस्तूरी मृग का आखेट करने वाले मृग की नाभि में से कस्तूरी भर निकाल लेते हैं, मग को छोड़ देते हैं। धम्मपद पर दिए गए इन प्रवचनों में प्रज्ञापुरुष
ओशो ने यह दिखाया है कि मृग को छोड़कर कस्तूरी का मूल्य जानना संभव नहीं-कस्तूरी की सुगंध मृग से अभिन्न है। मृग से निकालकर कस्तूरी का कोई महत्व नहीं है। इस अर्थ में, बुद्ध की वाणी को बुद्ध से अलग करना संभव नहीं है,