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परमात्मा परम लयबद्धता
मगर अब यह छह बजे उसके पीछे पड़ गए। कभी घड़ी सोची न थी; कभी समय का कोई हिसाब न रखा था। कोई जरूरत ही न थी। अब तक तो ऐसे जी रहा था जैसे समय है ही नहीं। अब पहली दफा समय उसकी चेतना में प्रविष्ट हुआ। अनंत तो वर्तुलाकार है; समय रेखाबद्ध है। अब उसको फिकर लगी रहती। वह कई दफे जाकर बाजार में घंटाघर में देख कर आता कि कहीं छह तो नहीं बज गए। रात सोता तो भी फिकर लगी रहती कि कहीं छह तो नहीं बज़ गए। तुम कहोगे, नासमझ था, क्योंकि रात क्या सोचना? तुम भी दफ्तर की बात रात सोचते हो, दुकान की बात रात सोचते हो। वह भी अपनी दुकान की बात सोचता है। दुकान छोटी हुई तो इससे क्या फर्क पड़ता है? अब उसने भिक्षा मांगनी भी बंद कर दी। अब रुपया ही मिल जाता था तो मजे से खाने-पीने लगा। लेकिन वह छह बजे एक कांटे की तरह चेतना में चुभ गया।
महीने भर बाद राजा की सवारी निकली। हाथी की पूंछ पकड़ी, घिसट गया। हाथी रुक न सका।
जीवन बड़ी विराट ऊर्जा है। तुम अगर घिसट गए हो तो सिर्फ इसलिए घिसट गए हो कि उस विराट ऊर्जा को तुमने वर्तुलाकार न बना कर रेखाबद्ध बनाने की चेष्टा की है। धन से, राजनीति से, पद से तुम सीधे चलने की कोशिश कर रहे हो कि कहीं अंत ही न हो।
बुद्ध ने कहा है, जो चीज भी प्रारंभ होती है उसका अंत होता है। इस सत्य को जिसने जान लिया उसने सब कुछ जान लिया। तब यह संसार एक माया हो जाता है, एक सपना, जो आज है और कल नहीं हो जाएगा। बचेगा तो वही जो तुम जन्म के साथ लेकर आए थे। उतना ही। और उतनी तुम्हारी संपदा है। और उतना काफी है। क्योंकि वहीं परमात्मा छिपा है। उससे ज्यादा की किसी को भी कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें जो चाहिए वह तुम्हें मिला ही हुआ है। और तुम्हें जो नहीं चाहिए उसकी दौड़ में तुम उसे खो रहे हो जो तुम्हें मिला हुआ है। यह है मूल मापदंड।
'और प्राचीन मानदंड को जानना ही रहस्यमय सदगुण है।'
तब तुम्हारे जीवन में एक नीति की सुवास उठेगी। उस सुवास में न तो गंध होगी लोभ की, न दुर्गंध होगी भय की। वह सुवास अपार्थिव है।
तो दो तरह के नैतिक व्यक्ति हैं। एक तो वे नैतिक व्यक्ति हैं जो गणित के हिसाब से नैतिक हो गए हैं। डर है पुलिसवाले का, अदालत का, मुकदमे का, नरक का, स्वर्ग का; वे भयभीत हैं। अगर भय उठा लो, वे अभी बेईमान हो जाएंगे, अभी चोर हो जाएंगे। उनकी नैतिकता वास्तविक नहीं है, जबरदस्ती आरोपित है।
और एक धार्मिक व्यक्ति की नैतिकता है, जो इसलिए नैतिक है कि वह जानता है यहां कुछ पकड़ने को ही नहीं है, कुछ बचाने को ही नहीं है। और बचाओ, कितना ही बचाओ, छूट ही जाएगा। तो पकड़ने का सार क्या है? जो छूट ही जाना है, उसे छोड़ देना ही उचित है। जो मिट ही जाना है, वह मिट ही गया, ऐसा जान लेना उचित है। जो तुमसे छीन लिया जाएगा, अगर तुम खुद दे दो तो संन्यास है। मौत जो छीनेगी, वह अगर तुम खुद दे दो तो संन्यास है। मौत को जो संन्यास बना लेता है वह परम ज्ञानी है। मौत तो करेगी वही; उसमें कुछ बदलाहट होने वाली नहीं है। तुम्हें वह अपवाद नहीं देगी; मौत छीन लेगी सब। अगर यह तुम्हें दिखाई पड़ जाए तो तुम अपनी मौज से ही छोड़ देते हो सब। तुम कहते हो, तब ठीक है। पानी पर खिंची रेखा है; खिंच भी नहीं पाती, मिट जाती है। कौन इसके लिए पागल हो? रेत का बनाया घर है; हवा का जरा सा झोंका गिरा देता है। कौन इसके लिए दीवानगी करे?
जैसे ही तुम्हें यह मापदंड खयाल में आने लगा, तो लाओत्से कहता है, 'जब रहस्यमय सदगुण स्पष्ट, दूरगामी बनता है...।'
कि दूर तक तुम्हें दिखाई पड़ने लगता है जीवन का अर्थ वर्तुलाकार है, कि तुम देखते हो कि दूर जाकर रेखा मुड़ गई है, और वहीं आ गई है जहां से शुरू हुई थी।
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