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________________ परमात्मा परम लयबद्धता छोटी-छोटी चीजों में उत्सुक हो जाते। पत्नी भोजन भी बना कर लाती तो ब्रह्मचर्चा छोड़ देते थे वे। ब्रह्मचर्चा चल रही थी; शिष्यों को समझा रहे थे; पत्नी भोजन की खबर लेकर आ जाती तो वे एकदम उठ कर खड़े हो जाते, वे भूल ही जाते ब्रह्मचर्चा। वे झांक कर पहले थाली में देखते-क्या भोजन बना है! बीच-बीच में ब्रह्मचर्चा छोड़ कर, कथा है, कि वे चौके में पहुंच जाते थे, जरा झांक आते थे—क्या बन रहा है! पत्नी भी उनकी कहती थी कि परमहंसदेव, यह शोभा नहीं देता। लोग क्या कहेंगे? अगर उनको यह पता चल जाए कि तुम बीच चर्चा में, ब्रह्म की बातें समझाते-समझाते बीच-बीच में, चौके में आकर देख भी जाते हो कि आज क्या बन रहा है, तो लोग क्या कहेंगे! वे कोई भी परमहंस रामकृष्ण को न समझ पाते थे। वे सब ज्ञान से जी रहे थे कि रामकृष्ण को कैसा होना चाहिए, सिद्धांत, कि ऐसे महापुरुष कहीं भोजन की फिकर करते हैं। ऐसे महापुरुष तो स्वाद ही नहीं लेते! लेकिन रामकृष्ण छोटे बच्चे की भांति हो गए हैं। यह जो बालपन है, इस बालपन का जो सौंदर्य है, उसी को लाओत्से अज्ञान कह रहा है। कभी इस पृथ्वी पर अधिक लोग ऐसे ही थे। फिर ज्ञान ने भ्रष्ट किया; वेदों-कुरानों ने मिटाया; आदमी की खोपड़ी को भर दिया शब्दों से। और उसके जीवन का सारा सौंदर्य नष्ट हो गया। सारी पुलक चली गई। नाच खो गया। गीत कंठ में ही दब गए। हृदय की धड़कन धीमे-धीमे धीमी होती हुई बिलकुल खो गई। बस खोपड़ी का शोरगुल रह गया। लाओत्से यह कह रहा है कि हृदय से है रास्ता सत्य का, मस्तिष्क से नहीं। कितना तुम सोचते हो, इससे तुम करीब न पहुंच जाओगे सत्य के। कैसे तुम जीते हो, एक निर्दोषता में, बच्चे जैसे, उससे ही पहुंचोगे। रामकृष्ण को बड़ी अड़चन थी। क्योंकि पूजा-पाठ करने के लिए रखा गया था उनको दक्षिणेश्वर में। पुजारी थे। तो पुजारी का तो काम पंडित का है। और ये तो बिलकुल गैर-पंडित जैसे आदमी थे। इनका तो कभी-कभी झगड़ा भी हो जाता था काली से। अब यह कहीं संभव है पुजारी कि झगड़ा कर ले? लेकिन प्रेमी कर सकता है। और प्रेम न हो तो पूजा क्या? कभी-कभी बड़ा झगड़ा हो जाता। एक बार तो इतने गुस्से में आ गए कि तलवार उठा ली, कहा कि अब होता हो ज्ञान तो इसी वक्त हो जाए नहीं तो गर्दन काट कर रख देता हूं, बहुत हो गया! और कहते हैं, उसी दिन रामकृष्ण को ज्ञान हुआ। एक काली के मंदिर में तलवार रखी थी, काली की सजावट का हिस्सा थी, उसको उठा लिया, निकाल लिया म्यान से। कोई भी नहीं था। क्योंकि उनकी पूजा कितनी देर चले उसका कोई हिसाब न था। लोग आते थे दस-पांच मिनट शुरू में, जब घंटा बजता। और यह सब होता तो लोग तभी चले जाते। क्योंकि उनका तो घंटों चलता था; कभी-कभी छह-छह घंटा। अब उतनी देर कौन लोग वहां बैठे रहें? और कौन यह बकवास सुने कि वे बातचीत कर रहे हैं, चर्चा हो रही है, जवाब-सवाल हो रहे हैं। कोई नहीं था मंदिर में। खींच ली तलवार और कहा कि अब बहुत हो गया, कर चुके काफी पूजा, और अब आज दांव पर पूरा लगा देते हैं। खींची तलवार अपनी गर्दन तक-और सब बदल गया एक क्षण में। तलवार हाथ से नीचे गिर गई; मंदिर खो गया; काली खो गई; रामकृष्ण खो गए। अठारह घंटे कोई होश नहीं आया। अठारह घंटे बाद होश आया तो आंख से आंसू बह रहे थे और वे चिल्ला रहे थे कि अब वापस मत भेज! अब जब दिखा ही दिया है तो अब वापस क्यों भेजती है! अब मुझे भीतर ही रहने दे। उस दिन घटना घट गई। अब पंडितों ने कहीं भी नहीं लिखा है कि तलवार उठा कर और पूजा करना। और पंडितों ने लिखा होता और तुम तलवार उठाते भी तो वह औपचारिक होती, वह हार्दिक न होती। तुम जानते थे कि कौन मार रहा है, कौन मारने जा रहा है। रामकृष्ण भोग लगाते तो पहले खुद को लगा लेते, फिर काली को। मंदिर की कमेटी थी ट्रस्टियों की। एतराज उठाया और बुलाया और कहा कि यह नहीं चलेगा। रामकृष्ण ने कहा, तो नहीं चलेगा तो अपनी नौकरी सम्हालो। 55
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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