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ताओ उपनिषद भाग ६
छोटा बच्चा चलता है। वह यह नहीं कहता कि मैं तभी चलूंगा जब गिरने का सब डर मिट जाए। छोटे बच्चे अगर ऐसा कहें तो दुनिया में कोई फिर कभी चल ही न पाए। छोटे बच्चे बड़े दुस्साहसी होते हैं। छोटा बच्चा चलना शुरू कर देता है बिना भय के। और जानता है कि हाथ-पैर कंप रहे हैं, डगमगा रहा है, सहारे की जरूरत है, फिर भी छोटा बच्चा चाहता है, सहारा मत दो। मां सहारा देती है, छोटा बच्चा उसको छोड़ कर चलना चाहता है; क्योंकि सहारा अपमान है। और सहारे से कौन कब तक चलेगा? कितने दूर तक चलेगा? सहारा तो उधार है। दूसरे के सहारे पर कितनी देर टिका जा सकता है? छोटा बच्चा हाथ हिलाता है कि नहीं; वह अपनी तरफ से कोशिश करता है।
बड़ी महत्वपूर्ण घटना है छोटे बच्चे को चलते हुए देखना। उससे महत्वपूर्ण घटना जीवन में फिर दुबारा घटती ही नहीं, जब तक कि तुम आत्मा की यात्रा पर न निकलो। क्योंकि फिर एक नयी चाल शुरू होती है; अब वह शरीर की नहीं है, अब वह आत्मा की है। फिर तुम डगमगाते हो। छोटे बच्चे को देखो! उठाता है पैर, डरता है, सम्हालता है, कंप रहा है। फिर भी चलने की कोशिश करता है। वह यह नहीं कहता कि जब मैं चलना ठीक से कर सकूँगा, तभी चलूंगा। तो फिर ये पैर ठीक से चलेंगे कैसे? कब चलेंगे? छोटा बच्चा चलता है, गिरता है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम भी नहीं गिरोगे। ग्रिरोगे। क्योंकि कोई भी एकदम से नहीं चल सकता। चलना एक कला है जो धीरे-धीरे आती है। बच्चा गिरेगा, घुटने टूट जाएंगे, खून निकलेगा। लेकिन इससे कुछ बाधा न पड़ेगी। इससे चुनौती मिलेगी, बच्चा और चलने की कोशिश करेगा। अगर बच्चा तुम जैसा बुद्धिमान हो और एक दफा घुटने टूट जाएं और बिस्तर पर लेट जाए, और कह दे कि बस हो गया, अब यह काम दुबारा नहीं करना। नहीं, घुटने टूटते हैं तो और आकर्षण बढ़ता है; रस आता है चुनौती से। बच्चा फिक्र नहीं करता घुटने टूटने की; फिर चलता है, फिर-फिर चलता है। बहुत बार गिरता है। कोई हिसाब है बच्चे के गिरने का? लेकिन एक दिन खड़ा हो जाता है। जिस दिन बच्चा खड़ा होता है अपने पैरों पर, उस दिन उसकी शान देखने जैसी है। कितना छोटा, कितना कमजोर, असहाय; फिर अपने पैर पर खड़ा है। उसकी शान का कोई मुकाबला नहीं।
बस वैसी शान एक दफा और आती है जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। फिर छोटा सा दीया ऐसी शान • से जगमगाता है जैसे महा सूरजों को फीका कर देगा। वह बोधिवृक्ष के नीचे जब बुद्ध को ज्ञान हुआ, उस क्षण सब सूरज फीके हो गए। उस दिन एक छोटी सी बूंद ने सागर को छोटा कर दिया। उस दिन यह सारा अस्तित्व, इतना बड़ा होकर भी, बुद्धत्व से छोटा हो गया। क्योंकि एक बच्चा फिर अपने पैरों पर खड़ा हो गया; एक बच्चा फिर प्रौढ़ हुआ। अस्तित्व ने बुद्ध के द्वारा फिर से प्रौढ़ता का रस पाया। फिर से बोध का आनंद!
तो कथाएं हैं कि सारा गगन गूंज उठा अनंत-अनंत वाद्यों से; देवता नाच उठे; देवता बुद्ध के चरणों में झुके। क्योंकि जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो सारा अस्तित्व समारोह से भर जाता है; क्योंकि सारा अस्तित्व मां जैसा है। जैसे मां, जिस दिन पहले दिन उसका बच्चा खड़ा हो जाता है, अपने बल चलने लगता है, जैसी प्रफुल्लता से भर जाती है, वैसी प्रफुल्लता फूल-फूल पर, पत्ती-पत्ती पर, कण-कण पर छा जाती है। ये तो कथाएं इसी की सूचक हैं। कोई देवता हैं कहीं? कि कोई वाद्य बजाता है? कि कहीं कोई ब्रह्मा हैं जो आकर बुद्ध के चरणों में झुक जाते हैं? नहीं, ये तो सूचक हैं; ये तो काव्य-प्रतीक हैं। लेकिन इन्होंने बड़ी बात कही है।
- आत्मा के पैरों के बल तुम जब खड़े हो जाओगे; जब तुम अपने दीपक स्वयं बन जाओगे। बुद्ध ने कहा है, अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बन जाओ।
कहां से शुरू करो? माना कि भय है, मान लो कि भय है; लेकिन भय को किनारे रखो और उठो। मान लो कि गिरोगे, निश्चित है कि गिरोगे; कभी कोई नहीं चल पाया बिना गिरे। बहुत बार चोट लगेगी; बहुत बार भटकोगे; भूल-चूक होगी। भूल-चूक होती ही है उससे जो चलने की कोशिश करता है; जो नहीं चलता उसी से भूल-चूक नहीं
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