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________________ प्रेम को सम्हाल लो, सब सम्मल जाएगा इसलिए तुम प्रेम को रोक सकते हो, ला नहीं सकते। ऐसे ही जैसे कोई अपना दरवाजा बंद कर ले; सूरज बाहर रहा आएगा, भीतर नहीं आ सकेगा। तुम कोई सूरज को भीतर थोड़े ही ला सकते हो; इतना ही कर सकते हो कि दरवाजा खोल दो; सूरज अगर है तो भीतर आ जाएगा। प्रेम को कोई पैदा नहीं कर सकता। प्रेम तो परमात्मा से अवतरित होता है। प्रेम तो परमात्मा की रोशनी है। तुम इतना ही कर सकते हो कि या तो दरवाजे बंद करके भीतर छिप रहो या दरवाजे खुले छोड़ दो ताकि प्रेम चला आए, जब भी चाहे चला आए। लेकिन डर है, भय है। और दुष्टचक्र यह है कि जितना तुम भयभीत हो उतना ही प्रेम न आ सकेगा, दरवाजे तुम बंद रखोगे; और जितने तुम दरवाजे बंद रखोगे, उतने ही तुम भयभीत होते जाओगे। यह दुष्टचक्र है। इससे पार होना बड़ा मुश्किल मामला है। क्योंकि कहां से शुरू करें? जितना तुम अपने भीतर अपने को बंद रखोगे, प्रेम नहीं आ सकेगा; उतने ही ज्यादा तुम भयभीत होने लगोगे। क्योंकि प्रेम ही एकमात्र अभय है। प्रेम में ही तुम पहली दफा जानते हो, कोई मृत्यु नहीं है। प्रेमी मर जाते हैं, प्रेम नहीं मरता। तो प्रेमी तो रूप थे, प्रेम ही था जो रूपायित हुआ था। मैं नहीं रहूंगा, तुम नहीं रहोगे; लेकिन जो हम दोनों के बीच घट रहा है, वह बचेगा। वह घटता ही रहेगा। किनारे खो जाते हैं, सरिता बचती है। ज्ञानी-ज्ञाता खो जाता है, ज्ञान बचता है। प्रेमी-प्रेयसी खो जाती है, प्रेम बचता है। प्रेम ही अनेक-अनेक बार रूप लेता है प्रेमी के और प्रेयसी के, ज्ञाता के और ज्ञेय के। परमात्मा जीवन की ऊर्जा है; वह बचती है। सब रूप बनते हैं, मिटते हैं। तुम भयभीत रहोगे ही जब तक तुमने प्रेम को नहीं जाना; क्योंकि प्रेम में ही तो पहली दफे तुम्हें पता लगेगा: आ जाए मृत्यु, कुछ भी मिटेगा नहीं; आज आना हो आज आ जाए, क्योंकि जो पाना था वह पा लिया। प्रेम का एक क्षण बिना प्रेम के जीए हजारों जीवनों से बड़ा है। प्रेम का एक क्षण अनंत है। अगर तुमने एक क्षण को भी प्रेम जान लिया तो तुम मौत से कह सकते हो, अब आ जाओ, अब कोई अड़चन नहीं है; जो होना था हो गया, जो पाना था पा लिया। और वह समाधि जान ली जो मृत्यु के पार है; अब तुम आ जाओ; अब तुम्हारे आने से कुछ भी मिटेगा नहीं। सिर्फ प्रेमी ही निश्चित मरता है; क्योंकि मृत्यु उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती। उसने अपनी प्रतिमा भी देख ली है प्रेम-पात्र के द्वारा, जो अमृत की है और उसने अपने प्रेम-पात्र की भी प्रतिमा देख ली है, जो अमृत की है। भीतर तो तुम्हारे अमृत है, मृत्यु तो बाहर-बाहर है। प्रेम तुम्हें मौका देगा कि तुम्हारा भीतर खिल जाए; तुम्हारा भीतर फूल बन जाए और तुम देख लो। - प्रेम अभय करता है। अब कठिनाई है जो वह यह है कि तुम शुरू कहां से करो? भयभीत रहोगे, प्रेम न हो सकेगा; प्रेम न होगा, और भयभीत होओगे; और भयभीत होओगे तो और तुम सुरक्षा कर लोगे, प्रेम के होने की और संभावना समाप्त हो जाएगी। कहां से शुरू करो? साहस की जरूरत है; दुस्साहस की जरूरत है। भयभीत हो माना, फिर भी दरवाजा खोल दो। दरवाजा खोले बिना तुम अभय न हो सकोगे। इसलिए प्रतीक्षा मत करो कि जब अभय हो जाएंगे तब दरवाजा खोलेंगे; तब तो तुम कभी भी न खोल पाओगे। दरवाजा खोलो। कंपते हाथों से खोलो। कंपती छाती से खोलो। रो-रोआं भयभीत हो, लेकिन दरवाजा खोलो। इसलिए कहता हूं, दुस्साहस है। भय के बावजूद दरवाजा खोलना पड़ेगा। तुम यह अगर मांग रखोगे कि जब अभय हो जाऊंगा तब दरवाजा खोलूंगा, अभी तो बहुत भयभीत हूं, दरवाजा खोलने से पता नहीं कौन भीतर आ जाए! कैसी हवाएं, कैसे तूफान, कैसी आंधियां भीतर आ जाएं। अभी तो सुरक्षित हूं अपने घर में। तो सुरक्षा तुम्हारी कब्र बन जाएगी। फिर तुम दरवाजा कभी भी न खोल सकोगे। 35
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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