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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ 406 लेकिन इस सौंदर्य के देखने में कुछ पाप नहीं है । यह कैसे हो सकता है कि जब तुमने एक दीये में रोशनी देखी और आह्लादित हुए तो दूसरे दीये में रोशनी देख कर तुम आह्लादित न हो जाओ ? लेकिन एक स्त्री कोशिश करेगी कि तुम्हें अब सौंदर्य कहीं और दिखाई न पड़े। और एक पुरुष कोशिश करेगा, अब स्त्री को यह सारा संसार पुरुष से शून्य हो जाए, बस मैं ही एक पुरुष दिखाई पडूं । तब एक बड़ी संकटपूर्ण स्थिति पैदा होती है। स्त्री कोशिश में लग जाती है इस पुरुष को कहीं कोई सुंदर स्त्री दिखाई न पड़े। धीरे-धीरे यह पुरुष अपनी संवेदनशीलता को मारने लगता है, क्योंकि संवेदनशीलता रहेगी तो सौंदर्य दिखाई पड़ेगा। सौंदर्य का किसी ने ठेका नहीं लिया है; जहां होगा वहां दिखाई पड़ेगा। और अगर प्रेम स्वतंत्र हो तो हर जगह हर सौंदर्य में इस व्यक्ति को अपनी प्रेयसी दिखाई पड़ेगी, और प्रेम गहरा होगा। लेकिन स्त्री काटेगी संवेदनशीलता को पुरुष काटेगा स्त्री की संवेदनशीलता को; दोनों एक-दूसरे की संवेदना को मार डालेंगे। और जब पुरुष को कोई भी स्त्री सुंदर नहीं दिखाई पड़ेगी तो तुम सोचते हो घर में जो स्त्री बैठी है वह सुंदर दिखाई पड़ेगी? वह सबसे ज्यादा कुरूप स्त्री हो जाएगी। उसी के कारण सौंदर्य का बोध ही मर गया। तो तुम सोचते हो जिस स्त्री को कोई पुरुष सुंदर दिखाई न पड़ेगा उसे घर का पुरुष सुंदर दिखाई पड़ेगा? जब पुरुष ही सुंदर नहीं दिखाई पड़ते तो इस भीतर का जो पुरुषत्व है वह भी अब आकर्षण नहीं लाता । तुम ऐसा ही समझो कि तुमने तय कर लिया हो कि तुम जिस स्त्री को प्रेम करते हो, बस उसके पास ही श्वास लोगे, शेष समय श्वास बंद रखोगे । और तुम्हारी स्त्री कहे कि देखो, तुम और कहीं श्वास मत लेना! तुमने खुद ही कहा है कि तुम्हारा जीवन बस तेरे लिए है। तो जब मेरे पास रहो, श्वास लेना; जब और कहीं रहो तो श्वास बंद रखना। तब क्या होगा? अगर तुमने यह कोशिश की तो दुबारा जब तुम इस स्त्री के पास आओगे तुम लाश होओगे, जिंदा आदमी नहीं। और जब तुम और कहीं श्वास न ले सकोगे तो तुम सोचते हो इस स्त्री के पास श्वास ले सकोगे ? तुम मुर्दा हो जाओगे । ऐसे प्रेम कारागृह बनता है। प्रेम बड़े आश्वासन देता है - और आश्वासनों को पूरा कर सकता है - लेकिन वे' पूरे हो नहीं पाते। इसलिए हर व्यक्ति प्रेम के विषाद से भर जाता है। क्योंकि प्रेम ने बड़े सपने दिए थे, बड़े इंद्रधनुष निर्मित किए थे, सारे जगत के काव्य का वचन दिया था कि तुम्हारे ऊपर वर्षा होगी; और जब वर्षा होती है तो तुम पाते हो कि वहां न तो कोई काव्य है, न कोई सौंदर्य, सिवाय कलह, उपद्रव, संघर्ष, क्रोध, ईर्ष्या, वैमनस्य के सिवाय कुछ भी नहीं। तुम गए थे किसी व्यक्ति के साथ स्वतंत्रता के आकाश में उड़ने; तुम पाते हो कि पंख कट गए। तुम गए थे स्वतंत्रता की सांस लेने; तुम पाते हो गर्दन घुट गई। प्रेम फांसी बन जाता है सौ में निन्यानबे मौके पर; लेकिन प्रेम के कारण नहीं, तुम्हारे कारण । तुम्हारे धर्मगुरुओं ने कहा है, प्रेम के कारण। वहां मेरा फर्क है। और तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें ज्यादा ठीक मालूम पड़ेंगे, क्योंकि जिम्मेवारी तुम्हारे ऊपर उठा रहे हैं वे । वे कह रहे हैं, यह प्रेम का ही उपद्रव है; पहले ही कहा था कि पड़ना ही मत इस उपद्रव में, दूर ही रहना। तो तुम्हारे धर्मगुरु प्रेम की निंदा करते रहे हैं । तुम्हें भी जंचती है बात; जंचती है इसलिए कि तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें दोषी नहीं ठहराते, प्रेम को दोषी ठहराते हैं। मन हमेशा राजी है, दोष कोई और पर जाए; तुम हमेशा प्रसन्न हो । मैं तुम्हें दोषी ठहराता हूं, सौ प्रतिशत तुम्हें दोषी ठहराता हूं। प्रेम की जरा भी भूल नहीं है । और प्रेम अपने आश्वासन पूरे कर सकता था । तुमने पूरे न होने दिए; तुमने गर्दन घोंट दी। सीढ़ी ऊपर ले जा सकती थी; तुम नीचे जाने लगे। नीचे जाना आसान है; ऊपर जाना श्रमसाध्य है। प्रेम साधना है। और प्रेम को कारागृह बनाना ऐसे ही है। जैसे पत्थर पहाड़ से नीचे की तरफ लुढ़क रहा हो; जमीन की कशिश ही उसे खींचे लिए जाती है।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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