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ताओ उपनिषद भाग ६
उत्तर दे सकों तो तुम्हारा प्रेम झूठा है। तुम क्यों का उत्तर खोजो, और खोजो, और न पा सको, तो तुम्हारा प्रेम सच्चा है। तुम कहो कि क्यों तो कुछ भी नहीं मिलता, कारण तो कुछ भी नहीं मिलता, बस हृदय है कि बहा जाता है। अगर तुम कारण बता सको कि इस कारण से प्रेम है, तो प्रेम नहीं है। कारण ही महत्वपूर्ण है, धन, पद, प्रतिष्ठा, कुछ भी नाम हो उसका। और आज नहीं कल चुक जाएगा। कारण सदा चुक जाते हैं। कारण शाश्वत नहीं हो सकते; कारण तो क्षणभंगुर जीवन है उनका। अकारण प्रेम शाश्वत हो सकता है। वही प्रेम है। फिर जिससे तुमने प्रेम किया है, उसका शरीर भी छूट जाए तो भी प्रेम नहीं छूटता।
अभी मैं जैकुलिन के चित्र देख रहा था। दूसरा पति मर गया, ओनासिस। लेकिन जैकुलिन के चेहरे पर कोई उदासी और दुख नहीं है। ओनासिस की संपत्ति ही कारण रही होगी प्रेम का। और कैनेडी से भी प्रेम नहीं रहा होगा, क्योंकि इधर कैनेडी मरा नहीं कि उधर नयी साज-सज्जा, नये विवाह का आयोजन हो गया। शायद आयोजन पहले से ही तैयार था। शायद कैनेडी से भी प्रेम इसीलिए लगा लिया होगा कि कैनेडी की बड़ी संभावनाएं थीं भविष्य में, कभी न कभी वह आदमी प्रेसिडेंट होने ही वाला था। उसमें प्रतिभा थी, दौड़ थी, गति थी, महत्वाकांक्षा थी, अदम्य महत्वाकांक्षा थी। शायद उस अदम्य महत्वाकांक्षा के कारण ही यह स्त्री कैनेडी के प्रेम में पड़ गई होगी। फिर धन था अपार। कैनेडी मरा नहीं कि ओनासिस। और ओनासिस तो बूढ़ा आदमी था; उनहत्तर साल का होकर मरा। फासला लंबा है। जैकुलिन पैंतालीस साल की है। कुछ इस बूढ़े से प्रेम के कारण विवाह न किया होगा। दुनिया के थोड़े से संपत्तिशालियों में एक था ओनासिस; उसकी संपत्ति से प्रेम किया होगा। इधर ओनासिस मरा नहीं कि सारे अमरीका में चर्चा शुरू है कि अब कौन? जैकलिन किसके साथ विवाह करने वाली है? और देर न लगेगी। और अब तो देर करने का समय भी नहीं है; पैंतालीस साल की है। जल्दी ही करनी पड़ेगी; नहीं तो समय गुजर जाएगा।
सारी प्रेम की कथा के पीछे अक्सर कुछ और ही छिपा होता है। तुम्हारी मित्रता के पीछे कुछ और ही छिपा होता है। तुम्हारी मुस्कुराहट के पीछे कुछ और ही छिपा होता है। कोई भी चीज सरल नहीं मालूम पड़ती कि तुम सिर्फ मुस्कुरा रहे हो, पीछे कुछ भी नहीं है; कि तुम सिर्फ प्रेम कर रहे हो, पीछे कुछ भी नहीं है; कि तुम किसी के प्रति मित्रता का हाथ बढ़ा दिए हो अकारण, पीछे कुछ भी नहीं है।।
जिस दिन तुम सच होने शुरू हो जाओगे, जब तुम्हारा प्रत्येक कृत्य अपने आप में समग्र होगा और उसके पार कुछ भी न होगा, तब तुम्हें सत्य बड़ा कर्ण-मधुर मालूम पड़ेगा; उससे ज्यादा प्यारा कुछ भी नहीं है। तुम उसे आलिंगन कर लोगे। उससे सुंदर कुछ भी नहीं है। उससे संगीतपूर्ण कुछ भी नहीं है।
लेकिन तुम्हारे विसंगीत में, तुम्हारे भीतर के कोलाहल में, तुम्हारे कपट के जाल में जब संगीत की किरण आती है, तो तुम्हारे कारण संगीत की किरण संगीत की किरण नहीं मालूम पड़ती, उपद्रव मालूम पड़ती है। तुम अंधकार के इतने आदी हो गए हो कि जब प्रकाश तुम्हारे द्वार आता है तो तुम आंख बंद कर लेते हो, तुम तिलमिला जाते हो। तुम्हारी तिलमिलाहट प्रकाश के कारण नहीं है, तुम्हारी तिलमिलाहट लंबे दिनों तक अंधकार में रहने के कारण है।
'सच्चे शब्द कर्ण-मधुर नहीं होते; कर्ण-मधुर शब्द सच्चे नहीं होते।'
ऐसे बनने की कोशिश करना कि सत्य तुम्हें कर्ण-मधुर हो सके। और तब तक समझना कि यात्रा करनी है जब तक सत्य कर्ण-मधुर न हो जाए। चाहे कितना ही काटता हो, चाहे आरे की तरह तुम्हारी आत्मा को टुकड़े-टुकड़े कर देता हो, तो भी तुम अपने को इस योग्य बनाते जाना कि सत्य प्रीतिकर लगे। क्योंकि उसी प्रीति से तो परमात्मा तक पहुंचने का सेतु बनेगा।
और अगर असत्य कर्ण-मधुर लगता है, और जानते हो कि असत्य है...।
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