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परमात्मा का आशीर्वाद बरस रहा हैं
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मेरे पास इतने लोग आते हैं; उनमें तीन कोटियों के लोग हैं। एक वे हैं जो इसलिए आते हैं कि मैं उनकी मान्यताओं को पुष्ट कर दूं। वे मेरे पास आते ही नहीं; वे अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए आते हैं। वे जो मानते हैं, अगर मैं भी कह दूं कि ठीक है, तो उनके चित्त की प्रसन्नता देखने जैसी होती है। उनका अहंकार पुष्ट हुआ। वे गीता के भक्त थे, और मैंने गीता की प्रशंसा कर दी; तत्क्षण मैं उनके लिए ज्ञानी हो जाता हूं। मैं ज्ञानी हो जाता हूं, क्योंकि वे ज्ञानी हैं, और गीता में उनकी श्रद्धा है और मैंने भी कह दी बात । मैंने उनकी ही बात कह दी। ऐसे लोग मुझसे आकर कहते हैं कि आपने जो कहा वह हमारी ही बात कह दी ; चित्त प्रसन्न हो गया; बड़े आनंदित जा रहे हैं। ऐसा मौका कम ही आ पाता है। ऐसे लोगों को मैं आनंदित नहीं भेजता। क्योंकि वह तो गलती हो जाएगी। यह तो गलत तरह का आनंद होगा। यह तो दवा न होगी, जहर होगा। इनके अहंकार को तो तोड़ना है। और अगर इनके अहंकार में गीता की बुनियाद रखी है तो गीता को भी तोड़ना जरूरी है, ताकि इनका अहंकार गिर जाए। अगर इन्होंने अपने अहंकार को कृष्ण के सहारे खड़ा कर रखा है तो कृष्ण को भी खींच लेना जरूरी है, ताकि इनका अहंकार गिर जाए।
एक मित्र कुछ ही दिन पहले आए । आते ही से हाथ जोड़ कर कहा कि और सब ठीक है, आप कभी रामायण पर बोलें। आए थे मुझे सुनने को । रामायण के भक्त हैं। मैंने कहा, राम में मेरा कोई लगाव नहीं। इसलिए नहीं कि राम में मेरा कोई लगाव नहीं है। जैसे ही मैंने कहा राम में मेरा कोई लगाव नहीं, उनके चेहरे पर अंधेरे बादल घिर गए। और मैंने कहा, तुलसीदास होंगे अच्छे कवि, लेकिन उनके संतत्व में मेरा भरोसा नहीं। पैर के नीचे से जमीन खिसक गई; फिर दोबारा उनके मुझे दर्शन ही न हुए। आए थे यहां रुकने दस दिन कि हां सुनेंगे। लेकिन दूसरे दिन सुबह वे दिखाई ही नहीं पड़े। सांझ मिल कर ही निबटारा हो गया।
वे आए थे सुनने कि मैं राम की प्रशंसा करूं। राम की प्रशंसा में मुझे कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन मुसलमान से करता हूं मैं राम की प्रशंसा, राम के भक्त से नहीं करता। लोग मुझसे पूछते हैं, यह लाओत्से पर आप किसलिए बोल रहे हैं ? तो मैं कहता हूं, यहां कोई चीनी नहीं है इसलिए। अगर चीन जाऊं तो लाओत्से पर भूल कर नहीं बोलूंगा। क्योंकि वहां लाओत्से के आधार पर अहंकार खड़े हो गए हैं। वहां तो लोग बड़े प्रसन्न होंगे कि ठीक; उनकी ही बात को मैं ठीक कह रहा हूं।
इसे थोड़ा समझ लें। यह मेरा गणित थोड़ा समझ में आ जाए तो अच्छा। न कुछ लेना-देना है लाओत्से से, न कुछ लेना-देना है कृष्ण से। अगर सवाल है कुछ तो मेरे और तुम्हारे बीच है। तुम्हें तोड़ना है । तुम्हारे अहंकार को गिराना है। और जो-जो सहारे तुमने ले रखे हैं वे भी हटाने पड़ेंगे। नहीं कि वे सहारे गलत थे, बल्कि उन सहारों से तुमने एक गलत अहंकार खड़ा कर लिया था। इसलिए कभी हटाऊंगा और कभी जमाऊंगा। क्योंकि कभी मुझे लगेगा कि कोई ऐसा आदमी आ गया, कोई जैन आ जाए, तो मैं राम की प्रशंसा करता हूं। गहरे में सवाल इस तरह के आदमी के साथ यह होता है कि वह जो मानता है उसकी परितृप्ति हो जाए, उसका अहंकार भर जाए; मैंने भी हां भर
मैंने भी प्रमाण पत्र दे दिया कि वह ठीक है। जब राम का भक्त कहता है राम पर कुछ बोलें, तो वह यह नहीं कह रहा है कि राम से उसको कुछ लेना-देना है, वह यह कह रहा है कि मेरी जो मान्यताएं हैं उनको तृप्त करें, मेरी मान्यताओं पर जल सींचें। राम से कोई मतलब नहीं है। मेरे अहंकार को थोड़ा और बढ़ा दें कि मैं लौट कर जाकर कह सकूं कि मैं सदा ठीक था, सदा ही ठीक था। मैं और तर्क और प्रमाण जुटा लूं अपने ठीक होने के ।
नहीं ऐसी भूल मैं नहीं करता। ऐसा आदमी अगर बहुत हिम्मतवर हो तो ही मेरे पास टिक सकता है, नहीं तो भाग जाएगा। उसके बचने का कोई उपाय नहीं। बहुत साहसी हो कि अपने अहंकार को टूटता देख सके और रुक जाए, तो ही रुक पाएगा। लेकिन तो ही रुके तो कोई अर्थ है । तुम्हारे अहंकार को बचा कर तुम्हें मैंने रोक भी लिया