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________________ LASTHAN म आत्मा का भोजन है। प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है। उसके बिना जो जीता है, भूखा ही जीता है। उसके बिना जो जीता है, वह क्षुधातुर ही जीता है। उसके बिना जो जीता है, उसका शरीर भला जीता हो, उसका मन भला जीता हो, उसकी आत्मा मरी-मरी ही रहती है। उसे आत्मा का कोई अनुभव भी नहीं होता। आत्मा उसके लिए केवल एक शब्द है-सुना गया, पढ़ा गया; लेकिन शब्द बिलकुल अर्थहीन है। क्योंकि बिना प्रेम के कभी किसी ने जाना ही नहीं कि वह कौन है। बिना प्रेम के तो आदमी अपने से बाहर-बाहर ही भटकता है; अपने घर को उपलब्ध नहीं हो पाता। भीतर आने का एक ही द्वार है, वह प्रेम है। जैसे शरीर को श्वास की जरूरत है प्रतिपल; श्वास न मिले तो शरीर का जीवन से संबंध टूट जाता है। श्वास सेतु है। उससे हमारा शरीर अस्तित्व से जुड़ा है। श्वास भी दिखाई तो पड़ती नहीं, सिर्फ उसके परिणाम दिखाई पड़ते हैं कि आदमी जीवित है। श्वास चली जाती है तब भी परिणाम ही दिखाई पड़ते हैं, श्वास का जाना तो दिखाई नहीं पड़ता। यह दिखाई पड़ता है कि आदमी मुर्दा है। प्रेम और भी गहरी श्वास है, और भी अदृश्य; वह आत्मा और परमात्मा के बीच जोड़ है। जैसे शरीर और अस्तित्व के बीच श्वास ने जोड़ा है तुम्हें, वैसे ही प्रेम की तरंगें जब बहती हैं तभी तुम परमात्मा से जुड़ते हो। उस जुड़ने में ही पहली बार तुम्हें अपने होने के यथार्थ का पता चलता है। इसलिए प्रेम से महत्वपूर्ण कोई दूसरा शब्द नहीं। प्रेम से गहरी दूसरी कोई अनुभूति नहीं। प्रेम है क्या? और जो इतना महत्वपूर्ण है, उसे हम कैसे समझें? - प्रेम की कीमिया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। तुम अपने चेहरे को भी पहचानते हो तो इसीलिए कि दर्पण में तुमने चेहरे को देखा है। अन्यथा बताओ मुझे, कैसे अपना चेहरा पहचानते? अगर दर्पण में कभी चेहरा न देखा होता और कभी अनायास तुम्हारी तुमसे ही मुलाकात हो जाती, तो तुम पहचान न पाते। कैसे पहचानते? स्वयं को भी देखने के लिए एक दर्पण की जरूरत है। प्रेम दूसरे की आंखों में अपने को देखना है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। जब किसी की आंखें तुम्हारे लिए आतुरता से भरती हैं, कोई आंख तुम्हें ऐसे देखती है कि तुम पर सब कुछ न्योछावर कर दे, किसी आंख में तुम ऐसी झलक देखते हो कि तुम्हारे बिना उस आंख के भीतर छिपा हुआ जीवन एक वीरान हो जाएगा, तुम ही हरियाली हो, तुम ही हो वर्षा के मेघ; तुम्हारे बिना सब फूल सूख जाएंगे, तुम्हारे बिना बस रेगिस्तान रह जाएगा; जब किसी आंख में तुम अपने जीवन की ऐसी गरिमा को देखते हो, तब पहली बार तुम्हें पता चलता है कि तुम सार्थक हो। तुम कोई आकस्मिक संयोग नहीं हो इस पृथ्वी पर; तुम कोई दुर्घटना नहीं हो। तुम्हें पहली बार अर्थ का बोध होता है; तुम्हें पहली बार लगता है कि तुम इस विराट लीला में सार्थक हो, सप्रयोजन हो; इस विराट खेल में तुम्हारा भाग है; यह 29
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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