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ताओ उपनिषद भाग ६
यह सबसे कठिन काम है दुनिया में, अपनी छाती पर चढ़ कर बैठना। सोचो, कैसें बैठोगे अपनी छाती पर चढ़ कर? लेकिन बहुत बैठ गए हैं। जो बैठ जाते हैं वे तुम्हारे महात्मा हैं। लेकिन यह लड़ाई भी कभी पूरी नहीं होती, क्योंकि जिसकी छाती पर तुम बैठे हो, वह भी तुम्ही हो। उसे तुम दबा लो क्षण भर को, वह भी प्रकट होगा आज नहीं कल। और ध्यान रखें, जब भी कभी महात्मा छाती पर से उतरता है अपनी तो जितना बड़ा शैतान उसमें से निकलेगा उतना शैतान साधारण आदमी से नहीं निकल सकता। क्योंकि उसका शैतान बिलकुल ताजा है, उसका उपयोग ही नहीं हुआ। महात्मापन तो उसका बासा पड़ गया है, सेकेंड हैंड है; खूब उपयोग कर लिया है; लेकिन उसका शैतान बिलकुल ताजा बैठा है; उसने उपयोग करने ही नहीं दिया; वह उसके भीतर छिपा है। अस्वाद तो थक गया, लेकिन स्वाद की कामना अनथकी भीतर पड़ी है-कुंआरी, ताजी! ब्रह्मचर्य तो जराजीर्ण हो गया; वासना प्रतीक्षा कर रही है कि कब ब्रह्मचर्य को धक्का देकर गिरा दे। ___ इसलिए मेरे निरीक्षण में, जवान आदमी अगर ब्रह्मचर्य का व्रत ले तो कुछ वर्ष तक सफल हो सकता है। लेकिन कोई चालीस और पैंतालीस साल के करीब उपद्रव शुरू होता है, क्योंकि ब्रह्मचर्य की शक्ति थकनी शुरू हो जाती है
और जवानी की ताकत जो दबा रही थी वह भी क्षीण होने लगती है। इसलिए तुम्हारे महात्माओं का पतन अगर होता है तो वह पैंतालीस साल के करीब होता है। पैंतालीस साल के करीब महात्मा से सावधान रहना, क्योंकि दबाने के लिए जिस जवानी की जरूरत थी, अब वह शिथिल हो रही है। ब्रह्मचारी बुढ़ापे में कामवासना से भर जाते हैं।
___अब यह बिलकुल विपर्य हो गया। जवानी में कामवासना से भरे रहते, कुछ हर्ज न था। जवानी में कामवासना स्वाभाविक थी। उसे अगर ठीक से भोग लेते, जान लेते, पहचान लेते, तो बूढ़े होते-होते उसके पार हो गए होते। लेकिन जवानी में ब्रह्मचर्य से लड़ने का मजा लिया; फिर बुढ़ापे में वासना-अनथकी और ताजी-हमला करती है। इसलिए बूढ़े आदमियों के मस्तिष्क जितने गंदे होते हैं, उतने जवान आदमियों के कभी नहीं होते। . हां, बूढ़े आदमी का मस्तिष्क तभी ताजा और स्वस्थ होता है जब उसने वासना को जी लिया हो और पार हो गया हो; स्वाद को भोग लिया हो और स्वाद ब्रह्म हो गया हो; वासना को जी लिया हो और अब वासना अपने आप ही रूपांतरित होकर ब्रह्मचर्य बन गई हो।
अनुभव के बिना कोई शुद्धि नहीं है। इसलिए लाओत्से तुमसे कहता है, अनुभव! और जीवन का सरल अनुभव-न केवल व्यक्ति के लिए, बल्कि समाज के लिए भी।
लाओत्से के सुझाव बड़े नैसर्गिक हैं। कोई सुनेगा नहीं। मेरे सुझाव भी बड़े नैसर्गिक और सीधे हैं। कोई सुनेगा नहीं। सुन भी लेगा तो करेगा नहीं; क्योंकि उनमें अहंकार की कोई तृप्ति नहीं है। मैं सिखा रहा हूं ना-कुछ हो जाना; तुम कुछ होना चाहते हो। अगर धन की दुनिया में न हो पाए तो धर्म की दुनिया में हो जाओ। देखो तुम्हारे शंकराचार्यों को बैठे हुए अपनी-अपनी पीठ पर! उनकी अकड़ देखो! दुकान पर बैठे दुकानदार की भी कमर झुक गई, लेकिन शंकराचार्यों की नहीं झुकती। राजनीति में दौड़ने वाला नेता भी थक गया है, कभी-कभी धर्म की बात भी सोचने लगता है लेकिन शंकराचार्य शुद्ध अहंकार के शिखर हैं।
तुम्हारे अहंकार की तृप्ति नहीं है लाओत्से में! और अगर तुम लाओत्से को सुन पाओ तो तुम्हारे भीतर छिपे परमात्मा की परितृप्ति हो सकती है।।
लाओत्से के सूत्र को हम समझें। 'छोटी आबादी वाला छोटा सा देश हो।'
लाओत्से बड़े देशों के पक्ष में नहीं है, मैं भी नहीं हूं। क्योंकि बड़े देश महामारियों की भांति हैं। जितना बड़ा देश होगा उतनी बड़ी हिंसा होगी। जितना बड़ा देश होगा उतनी बड़ी राजनीति होगी, उतना उपद्रव होगा। जितना बड़ा देश
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