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________________ राज्य छोठा और विसर्गोठमुनव छो मनुष्य के जीवन में स्वाद पहली दफा उठता है। वह चेतना की ऊपर की सीढ़ी पर संभव है; नीचे की सीढ़ी पर संभव नहीं है। इसलिए अगर तुम अस्वाद साधोगे तो पशुओं जैसे हो सकते हो, परमात्मा जैसे नहीं। परमात्मा जैसे तो तुम तभी हो पाओगे, जब तुम्हारे छोटे-छोटे स्वाद में तुम्हें परम स्वाद आने लगेगा। तब तो उपनिषद के ऋषियों ने कहा, अन्नं ब्रह्म! निश्चित ही, ये अलग तरह के लोग हैं गांधी से। गांधी कहते हैं, नीम ब्रह्म! और ये उपनिषद के ऋषि कहते हैं, अन्नं ब्रह्म! कहते हैं, स्वाद! इतना स्वाद कि साधारण अन्न में से ब्रह्म प्रकट होने लगे! पी रहे हैं जल, लेकिन इतनी परितृप्ति कि कंठ पर जल का स्पर्श ब्रह्म का स्पर्श हो जाए! हवा का एक झोंका फूल की गंध ले आया है। नाक सिकोड़ कर महात्मा बन कर मत बैठ जाना, क्योंकि उस गंध में परमात्मा तुम्हारी तरफ आया है। वह हवा का झोंका परमात्मा को तुम्हारी तरफ बहा लाया है। तुम महात्मा बन कर अकड़ कर मत बैठ जाना; नाक बंद मत कर लेना-अस्वाद।। नहीं, लाओत्से तुम्हें आदर्श नहीं बनाना चाहता, तुम्हें नैसर्गिक बनाना चाहता है। सौ में एक ही महापुरुष तुम्हें नैसर्गिक बनाना चाहता है। क्यों? ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि तुम नैसर्गिक बनना नहीं चाहते। नैसर्गिक बनने में तुम्हें कोई मजा ही नहीं है, क्योंकि न कोई संघर्ष है वहां, न अहंकार की तृप्ति है। इसलिए तुम्हारे सौ महात्माओं में निन्यानबे वे हैं जो तुम्हें अहंकार की तृप्ति देना चाहते हैं-संघर्ष का मजा, चुनौती, लड़ाई, जीतने का मजा; न सही जीता दूसरे को, तो खुद ही को जीतो! महात्माओं के वचन हैं कि दूसरे को क्या जीतना; असली जीत तो खुद को जीतना है। मगर जीतने का रस कायम है! ___ लाओत्से कहता है, जीतना ही क्या? न दूसरे को, न अपने को। जीतने की कोई जरूरत ही नहीं, क्योंकि 'जीतने का मतलब हिंसा, जीतने का मतलब संघर्ष, द्वंद्व, कलह, तनाव, बेचैनी, संताप। दूसरे को जीता तो, अपने को जीता तो, लड़ाई तो रहेगी ही। लाओत्से कहता है, लड़ो ही मत; स्वीकार करो। जो-जो व्यक्ति तुम्हें लड़ने की सिखाते हैं उन-उनका तुम पर प्रभाव पड़ता है, क्योंकि तुम लड़ने को तत्पर खड़े हो। अगर दूसरे से न लड़े तो अपने से ही लड़ना पड़ेगा। बिना लड़े तुम्हारा मन मानता नहीं, क्योंकि बिना लड़े अहंकार निर्मित नहीं होता।। इसे ठीक से समझ लो। इसे मैं हजार-हजार बार दोहराता हूं कि तुम लड़ाई की उत्सुकता में हो, तत्पर हो, खोज रहे हो कि कहीं लड़ाई मिल जाए। और निश्चित ही, दूसरे से लड़ना जरा मंहगा काम है, क्योंकि दूसरा ऐसे ही खाली नहीं बैठा रहेगा। - इसलिए बहादुर दूसरों से लड़ते हैं; कायर खुद से लड़ते हैं। क्योंकि दूसरे से लड़ने में खतरा है; खुद से लड़ने में तो कोई खतरा ही नहीं है, निहत्थे। खुद से लड़ने का मतलब है तुम अपने को दो हिस्सों में बांट लेते हो: शरीर, आत्मा; लड़ाओ! निम्न प्रकृति, उच्च परमात्मा; लड़ाओ! ऊर्ध्वगामी ऊर्जा, अधोगामी ऊर्जा; लड़ाओ! तुम अपने भीतर दो हिस्से कर लेते हो। तुम अपने भीतर अंधेरा पक्ष और उजाला पक्ष कर लेते हो। यह रही पूर्णिमा, यह रही अमावस; संघर्ष शुरू! शुभ-अशुभ, हिंसा-अहिंसा, स्वाद-अस्वाद, वासना-ब्रह्मचर्य; लड़ाओ! सारा खेल इस बात का है कि तुम किसी भांति अपने से लड़ो। लड़ो तो अहंकार निर्मित होता है। इसलिए जैसा अहंकार तुम्हारे साधुओं के पास होता है-जैसा तीखा, प्रखर, धार वाला-वैसा असाधुओं के पास नहीं होता। असाधु दूसरों से लड़ रहे हैं। दूसरे से लड़ाई कभी भी निर्णीत नहीं हो पाती; विजय कभी आखिरी नहीं हो पाती। क्योंकि दूसरा फिर तैयार होकर आ जाएगा। आज हार गया, कल फिर तैयार हो जाएगा। और यह दूसरा हार गया; हजार दूसरे हैं, वे तुम्हें हराएंगे। दूसरे से लड़ाई तो अनंत है; वह कभी तय नहीं हो पाएगी कि तुम निश्चित रूप से जीत गए। लेकिन खुद से लड़ाई तो बड़ा सुविधापूर्ण काम है-अपनी ही छाती पर चढ़ कर बैठ गए। साआ! 371
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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