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ताओ उपनिषद भाग ६
सधे कैसे! जीभ को खराब कर लो। क्या जरूरत है रोज-रोज नीम की चटनी खाने की! जीभ पर तेजाब लगवा दो, जल जाए। स्वाद के जो छोटे-छोटे अणु हैं जीभ पर, कोष्ठ हैं, जिनसे स्वाद आता है, उनको जला दो। वह भी लोगों ने किया है। सूरदास ने अपनी आंखें फोड़ ली थीं, सिर्फ इसलिए ताकि सुंदर स्त्रियां दिखाई न पड़ें। क्योंकि सुंदर स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं तो वासना जगती है।
लुई फिशर को भी चटनी रखवा दी। लुई फिशर ने गांधी को चटनी खाते देख कर चखा। उसे क्या पता कि यह नीम है! वह तो कड़वा जहर थी। उसका तो सारा मुंह खराब हो गया। लेकिन अब गांधी से कैसे कहे? यही तकलीफ है। और गांधी बड़े रस से ले रहे हैं चटनी को; एक कौर दूसरी चीज का लेते हैं तो चटनी जरूर उसमें मिला लेते हैं। तो लुई फिशर ने सोचा कि होगा कोई भारतीय रिवाज, कोई रहस्यपूर्ण बात होगी; जब इतना बड़ा महात्मा करता है, तो कुछ रहस्य होगा! झंझट में बोलना ठीक भी नहीं, कुछ कहना ठीक भी नहीं। और पश्चिम के लोग इस अर्थ में थोड़े सोच-विचारपूर्ण हैं कि दूसरे की संस्कृति का खयाल रखो; इसका कोई रहस्य होगा, धार्मिक अर्थ होगा; गांधी करते हैं तो निष्प्रयोजन तो नहीं करेंगे। पर उसने देखा कि अगर मैं भी इस चटनी को मिला कर खाऊं तो सारा भोजन ही खराब हो जाएगा और यह तो वमन की हालत हो जाएगी। तो उसने सोचा, बेहतर है इस चटनी को एकबारगी इकट्ठा गटक जाओ, एक ही दफे झंझट होगी, और फिर शांति से भोजन कर लो। तो वह चटनी को गटक गया। गांधी ने कहा कि और चटनी ले आओ; लुई फिशर को बहुत पसंद पड़ी मालूम होता है।
शिष्य ऐसे ही फंसे हैं! शिष्य पूरी की पूरी चटनी इकट्ठी गटक जाते हैं। वे अपना बचाव खोज़ रहे हैं। लेकिन बचाव है नहीं। लुई फिशर जैसे बुद्धिमान आदमी में यह कहने का साहस नहीं है कि मैं यह चटनी नहीं खाऊंगा। बड़े लोगों का प्रभाव एक तरह की गुलामी मालूम पड़ता है। जैसे तुम गुलाम हो! जैसे तुम्हारे पास अपनी कोई अंतस-चेतना न रही, कि प्रभावशाली लोग जो करते हैं वह ठीक ही करते हैं। और अक्सर प्रभावशाली लोग गलत करते हैं, क्योंकि उनके सारे प्रभाव की गहराई में तो अहंकार होता है। उनके प्रभाव का कारण ही यही है कि उन्होंने अहंकार को खूब सजाया है। कभी-कभी प्रकट हो जाता है। लेकिन इतिहास उसको भी भूल जाएगा। . .
गांधी के एक शिष्य मेरे पास थे। उनका नाम तुमने सुना होगा-स्वामी आनंद। एक रात हम साथ ही सोए। तो उन्होंने मुझे कहा कि शुरू-शुरू में जब गांधी भारत आए अफ्रीका से तो वे उनका प्रेस रिपोर्टर का काम करते थे-आनंद स्वामी। तो गांधी ने एक व्याख्यान दिया जिसमें उन्होंने बड़े भद्दे, अभद्र शब्दों का उपयोग किया अंग्रेजों के खिलाफ, जैसी कि लोगों को गांधी से अपेक्षा न थी। आनंद स्वामी ने जो रिपोर्ट बनाई उसमें वे भद्दे शब्द, गालियों 'जैसे शब्द छोड़ दिए। सोचा कि उत्तेजना में कह गए हैं, बाद में खुद भी पछताएंगे।
गांधी ने दूसरे दिन जब रिपोर्ट पढ़ी, आनंद स्वामी को बुलाया और बहुत पीठ थपथपाई और कहा, तुमने ठीक किया, ऐसा ही करना चाहिए। क्योंकि उत्तेजना के क्षण में जो निकल गया उसको जनता तक पहुंचाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम जैसा ही रिपोर्टर होना चाहिए! _ आनंद स्वामी बहुत प्रभावित और प्रसन्न। वे मुझे इसीलिए सुना रहे थे कि गांधी ने कितनी मेरी प्रशंसा की।
और मैंने उनसे कहा कि अगर मैं गांधी की जगह होता तो उसी दिन तुम्हारा-मेरा संबंध समाप्त था, क्योंकि तुमने झूठ फैलाया! गांधी ने अगर अपशब्द उपयोग किए थे तो अपशब्द रिपोर्ट में होने चाहिए। तुम भी बेईमान हो और तुम्हारे गांधी भी बेईमान हैं जो उन्होंने तुम्हारी पीठ ठोंकी और कहा कि तुमने ठीक किया। गांधी को तो लगा कि ठीक किया, क्योंकि उत्तेजना के क्षण में, जब अहंकार पहरे पर नहीं होता, चीजें निकल जाती हैं। मगर वे वास्तविक हैं, अन्यथा निकलेंगी कहां से? वे भीतर हैं, इसलिए तो बाहर आ जाती हैं। अनगार्डेड मोमेंट, पहरे पर नहीं थे गांधी उस वक्त, बोलने में बह गए। मगर वह असलियत है। न होता भीतर तो निकलता कैसे? तुमने झूठ का प्रचार किया। मैंने कहा
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