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ताओ उपनिषद भाग ६
मैं उन्हें महात्मा नहीं कहता। मेरे तो महात्मा की परिभाषा यही है कि जिसके पास तुम्हें आत्मा उपलब्ध हो। लाओत्से मेरे अर्थों में महात्मा है। सौ में कभी एक महापुरुष लाओत्से जैसा होता है जो प्रकृति को स्वीकार करता है,
और उसी गहन स्वीकार में से सूत्र को खोज लेता है जिसके सहारे तुम धीरे-धीरे बिना किसी असंभव प्रक्रिया में उतरे मंजिल को उपलब्ध हो जाते हो। और गुरु तो वही है जो तुम्हें ऐसा मार्ग दे दे जो सुगमता और सहजता से जीवन के परम निष्कर्ष को निकट ले आए।
__तुम बहुत चकित होओगे, क्योंकि लाओत्से जो आदर्श बता रहा है, वे तुम्हें आदर्श जैसे ही न लगेंगे। लाओत्से ब्रह्मचर्य की बात ही नहीं करता, क्योंकि लाओत्से जानता है कि अगर तुमने सहजता सीख ली और सहजता से कामवासना को जी लिया तो ब्रह्मचर्य अपने से पैदा हो जाएगा। उसकी चर्चा की कोई जरूरत नहीं है। ब्रह्मचर्य की चर्चा तो वहां चलती है जहां वह पैदा नहीं हो पाता। वहां ब्रह्मचर्य का बड़ा गुणगान चलता है, बड़ी स्तुति चलती है। वह स्तुति इसीलिए चल रही है। वह धुआं है, जिसके भीतर दबी हुई वासना पड़ी है। और जीवन भर लोग संघर्ष करते हैं, कुछ भी तो उपलब्ध नहीं कर पाते। फिर भी तुम नहीं जागते।।
महात्मा गांधी ने जीवन भर ब्रह्मचर्य के लिए चेष्टा की; अंत तक उपलब्ध नहीं कर पाए। फिर भी तुम नहीं जागते। और महात्मा गांधी नहीं कर पाए तो तुम सोचते हो, तुम कर लोगे? तुम्हें यह खयाल ही नहीं आता कि महात्मा गांधी जितना श्रम तुम कर सकोगे? अथक श्रम किया; उनके श्रम में कोई जरा भी कमी नहीं है। लेकिन श्रम करने से ही थोड़े मंजिल पास आ जाती है; दिशा भी तो ठीक होनी चाहिए। तुम कितना ही दौड़ो, दौड़ने से थोड़े ही मंजिल पर पहुंच जाओगे। कभी-कभी धीमे चलने वाला भी मंजिल पहुंच सकता है, अगर दिशा ठीक हो; और दौड़ने वाला भटक जाए, अगर दिशा गलत हो। सच तो यह है, दिशा गलत हो तब तो धीमे ही चलना ठीक है; दौड़ने से तो बहुत दूर निकल जाओगे। दिशा गलत हो तब तो बैठे रहना ही बेहतर है। जल्दी मत करना दौड़ने की, क्योंकि नहीं तो वापस लौटने का फिर श्रम उठाना पड़ेगा।
महात्मा गांधी ने बड़ा श्रम किया। अगर उनके श्रम पर ध्यान दो तो वह चेष्टा अनूठी है, बहुत कम लोगों में की है। लेकिन उस श्रम के कारण कुछ उपलब्ध नहीं हुआ। गांधी आदमी ईमानदार थे; तुम्हारे हजारों महात्मा उतने ईमानदार भी नहीं हैं। क्योंकि गांधी को जो उपलब्ध नहीं हुआ, उन्होंने स्वीकार भी किया कि उपलब्ध नहीं हुआ। तुम्हारे हजारों महात्मा स्वीकार भी नहीं करते। वे तो कहे चले जाते हैं कि उन्हें उपलब्ध हो गया जो उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ है। वे उसकी घोषणा करते रहते हैं कि उन्होंने पा ही लिया जो उन्होंने बिलकुल नहीं पाया है, जिसकी गंध भी उन्हें नहीं मिली है। तो गांधी ईमानदार हैं, लेकिन गलत हैं। कोई ईमानदारी से ही तो ठीक नहीं हो जाता। ईमानदारी ठीक है अपने आप में। इसलिए मुझे आशा है कि अगले जन्म में गांधी रास्ते को पकड़ लेंगे, क्योंकि ईमानदारी का एक सूत्र उनके हाथ में है। तुम्हारे महात्माओं को तो अनेक-अनेक जन्मों तक भटकना पड़ेगा। उनके पास तो ईमानदारी का सूत्र भी नहीं है।
गांधी ने स्वीकार किया है कि सत्तर साल की उम्र में भी उनको स्वप्नदोष हो जाता है। हो ही जाएगा। इसमें कसूर वासना का नहीं है; इसमें कसूर गांधी का वासना के खिलाफ लड़ने का है। तुम जिस चीज से लड़ोगे वही तुम्हारे सपनों को घेर लेगी। तुम जिस चीज से दिन भर जूझोगे, तो दिन भर तो तुम जूझ सकते हो, क्योंकि चेतन मन काम करता है। लेकिन रात चेतन मन सो जाएगा; जिसने व्रत लिया, संकल्प किया, वह मन तो सो जाएगा। रात तो दूसरा मन जगेगा जिसे तुम्हारे व्रत का कोई पता ही नहीं है। रात तो नैसर्गिक मन जगेगा। सांस्कृतिक, सामाजिक, सभ्यता का दिया हुआ मन तो थक गया दिन भर में, वह सो जाएगा। वह तो बहुत छोटा सा है, दसवां हिस्सा है तुम्हारे मन का; वह जल्दी थक जाता है, दिन भर के काम में, व्यवसाय में रुक जाता है। रात तो तुम्हारा जो नौ गुना
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