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________________ प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए जिम्मेवार हैं। 357 जाती है! पास आते हैं ऐसा लगता है स्नान हो गया, चित्त शुद्ध हो जाता है। संत के पास जाकर, तुम्हें अगर संतों की पहचान करनी हो तो एक काम तुम कर सकते हो, यह कसौटी है: उनकी स्तुति करना । ऐसा हुआ, एक आदमी आया बायजीद को मिलने । बायजीद एक सूफी फकीर हुआ । और वह आदमी बड़ी प्रशंसा करने लगा कि तुम सूफियों के सम्राट हो! फकीर बहुत देखे, पर तुमसे कोई तुलना नहीं! बायजीद सिर झुकाए बैठा रहा, और उसकी आंखों से आंसू गिरते रहे। शिष्य थोड़े हैरान हुए। वह आदमी जा भी न पाया था कि एक और आदमी आ गया, और वह गालियां देने लगा और बायजीद को अनाप-शनाप कहने लगा कि तुम शैतान हो और धर्म को नष्ट कर रहे हो ! और तुम जो सिखा रहे हो यह शास्त्रों की शिक्षा नहीं है! तुम शैतान के ही दूत हो, परमात्मा के नहीं! और तुम मोहम्मद के खिलाफ हो ! और उसने बड़ी गालियां दीं और बड़ी निंदा की। बायजीद के आंसू वैसे के वैसे बहते रहे; वह आंख झुकाए बैठा रहा। दोनों चले गए। शिष्यों ने पूछा कि हम कुछ समझे नहीं, मामला क्या है? एक आदमी प्रशंसा कर रहा था तब भी आप रोते रहे और एक आदमी गाली दे रहा था तब भी रोते रहे। राज क्या है ? यह बड़ा विरोधाभासी व्यवहार है। बायजीद ने कहा, जो आदमी स्तुति कर रहा था तब मैं रो रहा था कि बेचारा, इसको कुछ भी पता नहीं। मेरी दशा मुझे पता है। मैं रो रहा था, क्योंकि मेरी दशा मुझे पता है कि मैं कैसा साधारण आदमी हूं। मुझे फकीर कहना भी उचित नहीं है। और यह कह रहा है तुम सम्राट हो फकीरों के। मैं रो रहा था, क्योंकि मुझे अपनी हालत का पता है। तो शिष्यों ने पूछा, फिर आप क्यों रो रहे थे जब दूसरा आदमी आपकी निंदा कर रहा था ? उसने कहा, तब भी मैं रो रहा था, क्योंकि वह बिलकुल ठीक कह रहा था । यही मेरी हालत है जो वह कह रहा था। शिष्यों ने कहा, हम क्या करें ? क्योंकि हमें पहला आदमी बिलकुल ठीक लगा और दूसरा बिलकुल गलत लगा। बायजीद ने कहा, दोनों की ठीक से सुनो, उससे तुम्हारे मन में संतुलन आएगा। क्योंकि एक पलड़े को नीचे झुका रहा है, एक ऊपर उठा रहा है। अगर तुम दोनों की बिलकुल ठीक से सुनोगे तो दोनों के मध्य में संतुलन आ जाएगा। बस मध्य में रुको, न स्तुति, न निंदा। वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक थे। ऐसा समझो कि वे एक ही आदमी की दो तस्वीरें थे । और दोनों – दोनों ही — गौर से सुनने योग्य हैं। और तुम एक को मत चुनना। तुम अगर पहले को चुनोगे तो भी तुमसे गलती हो जाएगी; क्योंकि तुम मेरे प्रति बहुत ज्यादा आशाओं से भर जाओगे। अगर दूसरे को चुन लोगे तो तुम भाग जाओगे और दुश्मन हो जाओगे। और जो मुझसे मिल सकता था, चूक जाओगे। तुम दोनों की बिलकुल ठीक से सुन लो और दोनों में चुनाव मत करना। दोनों एक-दूसरे को काट देंगे और तुम संतुलन को उपलब्ध हो जाओगे । संत स्तुति में पीड़ा पाता है। क्योंकि स्तुति तो उनकी की जानी चाहिए जो स्तुति से प्रभावित होते हैं। संत को तुम प्रभावित नहीं कर सकते। संत का अर्थ ही यह है कि जिसने सारे दोषों का दायित्व अपने ऊपर ले लिया है। अब तुम उसे धोखा नहीं दे सकते। खुशामद वहां सार्थक नहीं है। वहां अगर तुम निंदा करते जाओ तो शायद स्वीकार भी कर लिए जाओ, स्तुति करते जाओ तो स्वीकार न हो सकोगे। 'संत अपने को हमेशा दुर्बल पक्ष मानते हैं जिसका कसूर है, और दूसरे पक्ष पर कसूर नहीं मढ़ते । पुण्यवान आदमी समझौते के पक्ष में होता है, पापी कसूर मढ़ने के पक्ष में ।' पापी की पूरी चेष्टा यह होती है कि वह सिद्ध कर दे कि तुम गलत हो। इसमें उसे बड़ा रस है, क्योंकि यही उसके पापी बने रहने का बचाव है, पापी बने रहने की सुरक्षा है, वह सदा कोशिश करता है कि तुम जिम्मेवार हो । पापी कसूर मढ़ने के पक्ष में है, पुण्यवान सदा समझौते के पक्ष में है। और सदा दोषी अपने को मानने को राजी है। पुण्यवान झुकने को राजी है, वह कोमल है जल की भांति । पापी झुकने को राजी नहीं, वह सख्त है पत्थर की भांति । इसलिए आखिर में उसे टूटना पड़ेगा; क्योंकि नम्य जीतता है, अनम्य टूटता है। पुण्यवान है छोटे बच्चे की भांति,
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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