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ताओ उपनिषद भाग६
वास्तविक है। बादल आए और गए। तूफान उठा और गया। और तूफान के बाद की जो शांति है वह बड़ी प्रामाणिक है। जो पति-पत्नी लड़ते नहीं कभी, वे खतरनाक हैं। जो कभी साफ-साफ नहीं लड़ते; जो अपने बीच भी कूटनीति चलाते हैं, कि पत्नी को अगर पति को मारना हो तो बेटे की पिटाई करती है। यह कूटनीति है। मारना किसी को था, मारा किसी को। अक्सर बच्चे पिटते हैं दोनों तरफ से, क्योंकि वे कमजोर हैं और दोनों के बीच में खड़े हैं। पत्नी अगर पति से सीधा लड़ ले, उसके मन में जो उठा है उठ आने दे, छिपाए न...।
लेकिन कैसे न छिपाए? क्योंकि पाठ पढ़ाया गया है: सती-सावित्री होना है, सीता होना है। सीता को जंगल में फेंक आए राम, अकारण, जिसके लिए जरा भी कोई आधार नहीं है। एक धोबी ने कह दिया कि मैं कोई राम नहीं हूं, अपनी पत्नी से, कि तू रात भर घर से गायब रही और तुझे दूसरे दिन स्वीकार कर लूं। मैं कोई राम नहीं हूं कि बरसों सीता नदारद रही, कहां रही, क्या हुआ, कुछ पता नहीं, रावण ने क्या किया, क्या नहीं किया, कुछ मालूम नहीं, और फिर स्वीकार कर लिया। मैं कोई राम नहीं हूं। बस इतनी सी धोबी की बात पर! और कथा यह है कि राम अग्नि-परीक्षा भी ले चुके थे सीता की। वह भी व्यर्थ हो गई? इस एक मूढ़ के कहने पर सीता को फिंकवा दिया जंगल में। और सीता गर्भवती थी! और सीता ने कुछ भी कहा।
ऐसे आरोपण किए गए हैं आदर्शों के तुम्हारे ऊपर। तो पत्नी सोचती है, सीता-सावित्री होना है, लड़ना कैसे? लेकिन लड़ना तो भीतर है, ऊपर-ऊपर सुलह है। ऊपर-ऊपर सीता है; भीतर-भीतर आग जल रही है। और पति को भी आदर्श सिखाए गए हैं। सच्चा तो किसी को नहीं होना है।
आदर्श झूठ के जन्मदाता हैं। जितने आदर्श तुम्हें सिखाए गए हैं उतने ही अप्रामाणिक तुम हो गए हो। क्योंकि आदर्श का मतलब उसको पूरा करना है जो तुम नहीं हो; वैसा आचरण करना है जैसा तुम नहीं हो; वैसा व्यवहार करना है जो तुम नहीं कर सकते हो। आदर्श का मतलब ही यह होता है, तुम्हें अपने को दबाना है और.आदर्श को प्रकट करना है। तुम एक झूठ हो गए हो। और तुम्हारा वह जो दबा हुआ रूप है वह प्रकट होगा जगह-जगह से, हजार ढंग से प्रकट होगा। मवाद को तुम भीतर कैसे रोकोगे? मलहम-पट्टी करके और ऊपर से एक फूल चिपका लोगे, इससे कुछ हल होने वाला है?
प्रत्येक पुरुष के आदर्श हैं। प्रत्येक स्त्री के आदर्श हैं। संघर्ष मुश्किल है। और तब असली संघर्ष शुरू होता है, जिसमें जीवन डूब जाते हैं। तब घड़ी-घड़ी कलह होती है। स्त्री बरतन भी रखती है तो जोर से। पति दरवाजा भी खोलता है तो दुश्मनी से। बेटे पिट जाते हैं, बेटियां कुट जाती हैं। और उनका जीवन भी उपद्रव के जाल में संलग्न हो जाता है। पति घर आता है तो डरा हुआ; पत्नी अपने से भयभीत हो जाती है कि कहीं कलह न हो जाए, फिर कहीं वही बात न निकल आए जो कल निकल आई थी। और वह निकलेगी, क्योंकि जिससे तुम बचना चाहते हो उससे बचना असंभव है। जिसे तुम दबाते हो वह उभरेगा। जिससे तुम भयभीत हो, जाहिर है कि वह तुमसे ज्यादा ताकतवर है, तभी तो तुम भयभीत हो। फिर कलह होती है। और कलह को ऊपर से हम थेगड़ों से ढांकते जाते हैं। फिर जीवन का प्रेम ही नष्ट हो जाता है। क्योंकि जहां प्रामाणिकता न रही वहां प्रेम कैसा?
मैं तुमसे कहता हूं, ऐसा भूल कर मत करना। किसी को सीता नहीं होना है। एक सीता काफी है। किसी को राम बनने की जरूरत नहीं है। नहीं तो धोबी तुम्हें परेशान करेंगे। तुम्हें तुम्हीं होना है, और तुम्हें प्रामाणिकता से होना है। और तब एक अनूठा जीवन में रहस्य खुलता है। अगर पति-पत्नी दिल खोल कर कलह कर लेते हैं; जो कहना है कह लेते हैं। स्वभावतः, जीवन में धल इकट्ठी होती है। चौबीस घंटे साथ रहने से कलह भी होती है, संघर्ष भी होता है। मन मेल भी नहीं खाते कभी, बड़े से बड़े प्रेमियों में भी विरोध हो जाता है। धारणाएं मेल नहीं खाती, विचार मेल नहीं खाते। स्वाभाविक है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। क्रोध इकट्ठा होता है; धूल जमती है; धुआं आता है।
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