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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ 24 कि तुम कालिदास जैसे कवि हो जाओ, तब चुने जाओ। यह सवाल ही नहीं है। तुम अगर जूते भी सीते हो, और अगर जूते सीने में भी तुमने अपना पूरा तन-प्राण, अपनी पूरी ऊर्जा संलग्न कर दी है, और अगर जूता सीना भी तुम्हारा प्रेम और प्रार्थना बन गई है, और जूते सीने को भी तुमने परम सौभाग्य की तरह स्वीकार कर लिया है, किसी निराशा में नहीं...। ऐसा हुआ कि अब्राहम लिंकन जब प्रेसिडेंट बना अमरीका का तो लोगों को बहुत अच्छा नहीं लगा। क्योंकि वह कुलीन घर का न था, गरीब घर का था । असल में, एक चमार का लड़का था। तो लोगों को बड़ी बेचैनी थी कि एक चमार और प्रेसिडेंट हो गया। जिस दिन पहले दिन उसने शपथ ली और अपना पहला वक्तव्य दिया सिनेट में, एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि महानुभाव लिंकन, यह मत भूल जाना कि तुम्हारे बाप मेरे बाप के जूते सीया करते थे । सारी सिनेट हंसी व्यंग्य से, लेकिन लिंकन ने जो उत्तर दिया वह बड़ा महत्वपूर्ण था। लिंकन ने कहा कि मैं समझ नहीं पाता कि इस बात को आज क्यों उठाया गया, लेकिन मैं धन्यवाद देता हूं कि यह बात उठाई गई। क्योंकि इस क्षण में मैं अपने पिता को शायद भूल जाता, याद न कर पाता, तुमने याद दिला दी। और जहां तक मैं समझता हूं, मैं उतना अच्छा प्रेसिडेंट न हो सकूंगा, जितने अच्छे मेरे पिता चमार थे। और असली गणित तो वही है। प्रेसिडेंट और चमार थोड़े ही 'जाएंगे। कितने अच्छे! कितने कुशल ! और लिंकन ने कहा कि जहां तक मुझे याद है, तुम्हारे पिता की तरफ से मेरे पिता के जूतों के संबंध में कोई शिकायत कभी नहीं आई । वे कुशल थे, अदभुत थे। और उन्होंने चमार होने में अपनी समग्रता को पा लिया था । वे आनंदित थे। मैं इतना अच्छा प्रेसिडेंट न हो पाऊंगा। आखिरी हिसाब में, तुमने क्या किया, यह नहीं पूछा जाएगा। तुमने कैसे किया ! आखिरी हिसाब में, तुमने बहुत धन इकट्ठा किया, बहुत बड़े मकान बनाए, कि बड़े चित्र बनाए, कि मूर्तियां गढ़ीं, यह नहीं पूछा जाएगा। तुमने जो भी किया, क्या उससे तुम तृप्ति पा सके ? जो भी किया, क्या तुम संतुष्ट लौटे हो ? जो व्यक्ति संतुष्ट लौटता है. परमात्मा की तरफ वही उसके हृदय में विराजमान हो जाता है। जहां हो जैसे हो, अपनी नियति खोजो । दूसरे को भूल ओ। दूसरे से कुछ प्रयोजन नहीं है। 'प्रेम से आदमी अभय को उपलब्ध होता है।' और जब तक तुम प्रेम को उपलब्ध न होओगे अभय भी उपलब्ध न होगा। प्रेम के बिना तो आदमी कंपता ही रहता है भय से । क्यों? क्योंकि प्रेम के बिना जीवन में सिवाय मृत्यु के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; प्रेम के अनुभव से ही अमृत की पहली झलक आती है। फिर अभय आ जाता है। अति न करने से मनुष्य के पास शक्ति संयोजित होती है; अपूर्व शक्ति इकट्ठी हो जाती है। क्योंकि वह गंवाता नहीं; न दाईं तरफ, न बाईं तरफ। न वह लेफ्टिस्ट होता है, न राइटिस्ट; वह गंवाता ही नहीं है। वह अपनी शक्ति को बचाता है। उसके पास इतनी ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है कि ऊर्जा का परिमाणात्मक बल गुणात्मक क्रांति कर देता है । जैसे सौ डिग्री तक पानी को गरम करो, पानी भाप बन जाता है। निन्यानबे तक करो, नहीं बनता; अट्ठानबे तक नहीं । निन्यानबे तक भी नहीं बनता। एक डिग्री का फासला है, लेकिन अभी भी नहीं बनता। एक डिग्री और, तत्क्षण पानी की यात्रा बदल गई। पानी नीचे बहता था, भाप ऊपर उठने लगी। आयाम अलग हो गया। पानी दिखाई पड़ता था, भाप अदृश्य होने लगी। आयाम बदल गया। एक ऊर्जा का संगठन चाहिए भीतर। एक स्रोत चाहिए, अदम्य, भरपूर । उस ऊर्जा के होने मात्र से ही, उसकी बढ़ती हुई उठता हुआ तल, उसका बढ़ता हुआ संग्रह तुम्हारे भीतर गुणात्मक परिवर्तन ले आता है। विज्ञान एक
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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