SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संत संसार भर को देता है, और बेशर्त बुद्ध ने कहा, जो तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, वह मुझे दिखाई पड़ रहा है; क्योंकि तुम्हारे पास देखने की आंखें नहीं हैं। वहां महल नहीं है, सिवाय लपटों के। और वहां कोई सुंदर पत्नी नहीं है, सिवाय लपटों के। मैं भाग नहीं रहा हूं। यह बड़े मजे की बात है। जिंदगी इतनी जटिल है कि कभी-कभी भगोड़े ही साहसी होते हैं; और जो खड़े हैं, लड़ रहे हैं, वे कमजोर होते हैं इसलिए खड़े हैं। लेकिन खड़े होने वालों की बड़ी भीड़ है; भीड़ से कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब भी तुम छोड़ने को, पीछे जाने को हटोगे, भीड़ तुम्हें कहेगीः कहां जाते हो? छूट गई हिम्मत? साहस मिट गया? डटे रहो। टूट जाओ, झुको मत। यही बहादुरों का लक्षण है। संन्यासी भगोड़ा लगता है। संन्यासी भगोड़ा है नहीं। वह वहां से हट रहा है, जहां आग लगी है। अब हम लाओत्से के सूत्र को समझें। 'स्वर्ग का, ताओ का मार्ग, क्या वह धनुष के झुकाने जैसा नहीं है?' लाओत्से कहता है कि स्वर्ग का मार्ग ऐसा है, जैसे कोई धनुर्धर प्रत्यंचा को खींचता है और धनुष को झुकाता है। तीर चलता तभी है जब धनुष झुकता है। और जब कोई प्रत्यंचा को खींचता है तो क्या घटना घटती है? जो सिरा ऊपर था वह झुक कर नीचे आ जाता है; जो सिरा नीचे था वह उठ कर ऊपर जाता है। और जितना ही बड़ा धनुर्धर होगा उतनी ही बड़ी यह घटना घटेगी। ऊपर का सिरा नीचे आएगा; नीचे का सिरा ऊपर जाएगा। कहता है लाओत्से, 'स्वर्ग का ताओ-मार्ग, क्या वह मनुष्य के द्वारा धनुष के झुकाने जैसा नहीं है? शिखर नीचे चला जाता है, अधोभाग ऊपर उठ जाता है।' और एक संतुलन निर्मित हो जाता है। जो आगे था वह पीछे खींच लिया जाता है; जो पीछे था वह आगे बढ़ा दिया जाता है। और जीवन एक संतुलन में आ जाता है। जीवन की अति खो जाती है। संतुलन सार है लाओत्से के वचनों का। प्रथम होना भी सार्थक नहीं है, अंतिम होना भी सार्थक नहीं है। यहां जीसस और लाओत्से में तुम्हें फर्क साफ दिखाई पड़ेगा। जीसस कहते हैं, जो प्रथम खड़ा है वह अंतिम हो जाए, क्योंकि वही मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होने का उपाय है। लाओत्से यह नहीं कहता। लाओत्से कहता है कि प्रथम और अंतिम तो एक ही द्वंद्व के दो भाग हैं। इसलिए लाओत्से जीसस से गहरा जाता है। या तो तुम प्रथम खड़े होते हो, या 'जब तुम सब छोड़ देते हो, तुम अंतिम खड़े हो जाते हो। लाओत्से कहता है कि जीवन का मार्ग तो संतुलन है। तो वह यह नहीं कहता कि जो अंतिम हैं वे प्रथम हो जाएंगे और जो प्रथम हैं वे अंतिम हो जाएंगे। लाओत्से कहता है, जो अंतिम हैं वे थोड़े ऊपर आ जाएंगे; जो प्रथम हैं वे थोड़े नीचे आ जाएंगे; और एक जगह दोनों एक समान लयबद्धता में लीन हो जाएंगे; एक संतुलन निर्मित हो जाएगा। 'शिखर नीचे चला जाता है, अधोभाग ऊपर उठ जाता है। अतिरिक्त लंबाई छोटी हो जाती है...।' धनुष लंबा था; चौड़ाई छोटी थी, लंबाई ज्यादा थी; वह असंतुलन था। जब प्रत्यंचा खींची जाती है तो लंबाई छोटी हो जाती है। 'अतिरिक्त लंबाई छोटी हो जाती है, अपर्याप्त चौड़ाई बड़ी हो जाती है।' खिंची हुई प्रत्यंचा में धनुष की चौड़ाई और लंबाई बराबर हो जाती है। ‘स्वर्ग का ढंग है, वह उससे छीन लेता है जिसके पास अतिशय है, और उन्हें दिए देता है जिनको पर्याप्त नहीं है।' क्योंकि स्वर्ग निरंतर संतुलन बना रहा है। तो जो पीछे खड़े हैं उनको आगे ले आता है; जो आगे खड़े हैं उनको पीछे ले आता है। जिनके पास बहुत है उनसे छीन लेता है; और जिनके पास बहुत नहीं है उन्हें दे देता है। पहाड़ों को गिराता है, घाटियों को भरता है। अहंकारियों को काटता है; विनीत को, विनम्र को देता है। अकड़े हुओं से छीन लेता 313
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy