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________________ संत संसार भर को देता है, और बेशर्त तो उस आदमी ने कहा कि मेरा पागलपन? मैं जब तीन साल पहले आया तो अपने को पंडित जवाहरलाल नेहरू समझता था। मगर इन लोगों की कृपा कि बिलकुल ठीक कर दिया, रास्ते पर लगा दिया। अब वह झंझट न रही। उस पागल ने पूछा, और आप कौन हैं? मैंने तो पूछा ही नहीं। तो नेहरू ने कहा कि मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू हूं। वह पागल खिलखिला कर हंसा। उसने कहा, घबराओ मत, तीन साल लगेंगे, अगर इन्हें एक मौका दो। मुझको भी ठीक कर दिया, ये तुम्हें भी ठीक कर देंगे। पागल की अपनी दुनिया है। और तुम ध्यान रखना, जब तक तुम्हारी कोई निजी दुनिया है तब तक तुम थोड़े न बहुत पागल हो। क्योंकि ज्ञानी की कोई निजी दुनिया नहीं रह जाती। ज्ञानी के भीतर अपने प्रति कोई भाव ही नहीं रह जाता। न वह दूसरे के संबंध में कोई भाव रखता है, न अपने प्रति कोई भाव रखता है। वह खाली हो जाता है। और खाली हो जाना विमुक्ति है। जब तक तुम सोचते हो, मैं ऐसा हूं, मैं वैसा हूं, तब तक तुम समझना कि जो तुम हो उसको दबाने का तुम उपाय कर रहे हो। मूढ़ आदमी अपने को बुद्धिमान समझता है; कुरूप अपने को सुंदर समझता है। यही उपाय है कुरूपता से बचने का और ढांकने का। दीन-हीन अपने को बड़ा शक्तिशाली समझता है। असहाय अपने को बड़ा अहंकारी समझता है। तुम जो भी अपने को समझते हो, खयाल करना, वह तुम्हारी दशा से बिलकुल विपरीत होगा। और तुम जो भी समझते हो, वह सभी गलत है। अंतिम खड़े हो जाने का अर्थ है, तुम अपनी सब दौड़ छोड़ देते हो-बाहर की, भीतर की। न तुम बाहर से किसी की प्रतिस्पर्धा में हो, न भीतर से। तभी तो तुम्हारी विक्षिप्तता शांत होती है, और धीरे-धीरे तुम्हें वह दिखाई पड़ता है जो तुम हो। उसको ही आत्मज्ञान कहा है। आत्मज्ञान तुम्हें राम-राम जपने से न मिलेगा, न राम चदरिया ओढ़ लेने से मिलेगा, न माला फेरने से मिलेगा। आत्मज्ञान तो तुम्हें मिलेगा, अगर तुम अंतिम खड़े होने की सामर्थ्य जुटा लो। और कोई उपाय नहीं है। और सब उपाय धोखे हैं, तरकीबें हैं। और सब उपाय ऐसे ही हैं जैसे बीमारी तो कैंसर की है और तुम मलहम-पट्टी कर रहे हो। उसका कोई अर्थ नहीं है। बीमारी बहुत गहरी है; तुम चमड़ी पर मालिश में लगे हो। इस तरह हो सकता है तुम अपने को समझा लो, भुला लो, वंचना दे लो; लेकिन तुम रूपांतरित न हो पाओगे। अंतिम खड़े हो जाने का अर्थ है : तुम जैसे हो, वैसे ही अपने को जान लेना। और जब कोई प्रतिस्पर्धा न रही - तो डर क्या है? तुम अपने को खोल कर देख लोगे। अगर दीन हो तो दीन हो; अगर मूढ़ हो तो मूढ़ हो; अज्ञानी हो तो अज्ञानी हो। दावा किसके सामने करना है ज्ञान का? जब प्रतिस्पर्धा न रही तो किसको धोखा देना है? और ध्यान रखना, जब तुम दूसरों को धोखा देना बंद कर देते हो, तभी तुम अपने को धोखा देना बंद करते . हो। क्योंकि वे दोनों चीजें संयुक्त हैं। दूसरे को धोखा देने का बहुत गहरा अर्थ अपने को ही धोखा देना है। दूसरे को जब तुम धोखा देने में सफल हो जाते हो तब तुम्हें खुद भी धोखा आ जाता है कि ठीक है, जब इतने लोग मुझे बुद्धिमान समझते हैं तो जरूर मैं बुद्धिमान होना चाहिए। ऐसा कैसे हो सकता है! इतने लोग थोड़े ही धोखा खा जाएंगे? मेरे कहने से कोई इतने लोग थोड़े ही मान लेंगे? बात कुछ होनी ही चाहिए मुझमें। तुम धोखा दूसरे को देने जाते हो; अपने को दे लेते हो। इस धोखे में अगर रहोगे, तो तुमने जीवन बहुत गंवाए, यह जीवन भी गंवा दोगे। जागने का समय आ गया। ऐसे भी काफी सो लिए हो। और अगर जागना हो, पंक्ति में पीछे खड़े हो जाओ, पंक्ति को छोड़ दो। खोने को कुछ भी नहीं है पंक्ति को छोड़ने में, सिवाय तुम्हारी आत्म-वंचनाओं के। पाने को कुछ भी नहीं है पंक्ति के भीतर खड़े होकर, किसी ने कभी कुछ नहीं पाया। सिकंदरों ने नहीं पाया, तुम क्या पाओगे! मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक चोर घुस गया। मुल्ला ने देखा कि चोर घुस गया है तो वह एक बड़ी अलमारी में छिप कर खड़ा हो गया। पीठ कर ली दरवाजे की तरफ और अलमारी में छिप कर खड़ा हो गया। जब चोर वहां आया 311
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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