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जीवन कोमल है और मृत्यु कठोर
दो पदाकांक्षियों की मुठभेड़ हो गई। तुलसी भी थोड़े बेचैन हुए। जवाब भी कुछ न सूझा कि अब जवाब क्या दें! बात ही कोई सिद्धांत की होती तो समझा देते; जीवन की आ गई तो मुश्किल है। इधर-उधर देखने लगे। इतना ही कह सके कि चूंकि परंपरा है कि गुरु ऊपर बैठे। तो मोरारजी ने कहा, आप हमारे गुरु नहीं हैं। आप जिनके गुरु हों उनके साथ ऊपर बैठें; हम तो मेहमान हैं, और समानता की अपेक्षा रखते हैं।
- मैंने देखा यह तो बात बिगड़ गई, और अब आगे कुछ चर्चा का कोई उपाय न रहा। तो मैंने आचार्य तुलसी को कहा कि अगर आप मुझे कहें तो मैं मोरारजी को जवाब दूं। और अगर मोरारजी मेरा जवाब सुनने को राजी हों तो। अन्यथा मेरे बोलने का कोई सवाल नहीं। तुलसी जी तो चाहते थे कोई झंझट टले। उन्होंने कहा, जरूर। मोरारजी ने कहा, ठीक है आप जवाब दें; जवाब चाहिए।
मैंने उनको पूछा कि पहली तो बात यह, प्रश्न से ही हम जवाब की खोज करें। आपको यह अखरा क्यों? तुलसी जी ऊपर बैठे हैं; छिपकली देखिए और ऊपर बैठी है; कौआ और ऊपर बैठा है। अब इनसे कोई झगड़ा करने जाएंगे? न छिपकली से कोई झगड़ा, न कौआ से। तुलसी जी से भी क्या झगड़ा? बैठे रहने दें। यह कष्ट क्यों? यह पीड़ा कहां हो रही है? आप भी ऊपर बैठना चाहते थे; उस आकांक्षा को चोट लगी है। और मैं आपसे यह पूछता हूं कि जहां तुलसी जी बैठे हैं अगर वहीं आप भी बिठाए गए होते तो आपने यह सवाल पूछा होता? हम सब नीचे होते, आप भी उनके साथ ऊपर होते, आपने यह सवाल पूछा होता? इसलिए आप यह मत कहिए कि हम नीचे क्यों बिठाए गए हैं; आप इतना ही कहिए कि मैं नीचे क्यों बिठाया गया हूं। हम में मैं को मत छिपाइए; मैं को सीधा करिए। और अगर आप अपने मैं को ठीक से समझ लें तो तुलसी जी के मैं को समझने में कोई अड़चन न रहेगी। आप दोनों एक ही रास्ते के यात्री हैं। आपको अखर रहा है कि नीचे क्यों बिठाया गया; उनको मजा आ रहा है कि मोरारजी को नीचे बिठा दिया। दोनों की भाषा एक है। सवाल उठता नहीं है। अगर हम जो नीचे बैठे हैं इस तरह बैठे रहें कि जैसे हमें नीचे बिठाया या नहीं बिठाया बराबर है, तुलसी जी का मजा खो जाएगा नीचे बिठाने का। रस भी इसी में है कि भारत के वित्त मंत्री को नीचे बिठा दिया। और आपका कष्ट भी इसी में है कि भारत का वित्त मंत्री और नीचे बिठा दिया! आपका कष्ट और उनका सुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। या तो वे अपना सुख छोड़ें, नीचे आ जाएं। या आप अपना कष्ट छोड़ दें और नीचे बैठने को राजी हो जाएं।
पर आदमी के अंधेपन की कोई सीमा नहीं है। मोरारजी को तो फिर भी समझ में आया-इसीलिए मैं कई बार अनुभव करता हूं कि राजनीतिज्ञ भी उतने राजनीतिज्ञ नहीं होते जितने तुम्हारे साधु पुरुष होते हैं-मोरारजी ने तो कहा कि सोचेंगे इस बात पर, विचार करेंगे। और बात को लीपापोती करके दूसरी चर्चा शुरू की। जब सब विदा हो रहे थे
और मैं विदा लेने लगा तुलसी जी से तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा कि आपने अच्छा मुंहतोड़ जवाब दिया मोरारजी को। तब मैं बहुत चकित हुआ। यह जवाब मोरारजी को, तुलसी जी को नहीं? यह जवाब तो दोनों को था।
पदाकांक्षी त्याग से भी पद की ही तलाश करते हैं। महत्वाकांक्षी चाहे धन इकट्ठा करें, चाहे धन छोड़ें, हर हालत में पद की ही आकांक्षा काम करती रहती है।
मुझे अभी पिछले सप्ताह ही एक पत्र मिला है तीन साध्वियों का तुलसी जी की, कि चूंकि वे मेरी किताबें पढ़ती थीं इसलिए तुलसी जी ने उन्हें संघ से निष्कासित कर दिया। उन्होंने लिखा है कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गई हैं कि अब क्या करें। और उनका कहना यह है कि उनके आदेश के बिना हमने यह हिम्मत कैसे की कि आपकी किताबें पढ़ें।
तो यह कोई साधु होना न हुआ; यह तो सैनिक होने से भी बदतर हो गया। सैनिक को भी कम से कम इतनी स्वतंत्रता है कि वह कौन सी किताब पढ़ना चाहे पढ़े। लेकिन किताब पढ़ने के लिए भी परतंत्रता! वह भी पूछा जाना
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