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ताओ उपनिषद भाग ६
है। लेकिन अगर कोई गौर से खोजेगा तो बुद्ध के प्राणों में उपनिषदों की गूंज मौजूद है; वह खो नहीं गई है। तुम उनके वचनों में छिपा हुआ उपनिषद पा लोगे। तुम उनके एक-एक शब्द में, भारत का जो पूरा अतीत है, उसका रंग पाओगे, गंध पाओगे।
मनुष्य-जाति के इतिहास में लाओत्से जैसा दूसरा व्यक्ति खोजना करीब-करीब असंभव है। कोई गंज नहीं है अतीत की। किसी शास्त्र की कोई प्रतिध्वनि नहीं है। जैसे लाओत्से पहला आदमी है; उसके पहले जैसे आदमी हुए ही न हों। जैसे कोई संस्कृति, सभ्यता लाओत्से के पहले थी ही नहीं; जैसे कोई कंडीशनिंग नहीं है, कोई संस्कार नहीं है। लाओत्से बिलकुल पहले आदमी की तरह जगत को देख रहा है।
और जिस दिन तुम भी इस तरह देख सकोगे जैसे पीछे कोई अतीत हुआ ही नहीं, जैसे तुम अभी और यहां बस पहली बार अवतरित हुए हो, खाली और शून्य, उस क्षण तुम लाओत्से को समझ पाओगे। उसके पहले तुम लाओत्से की व्याख्या समझ लोगे, लाओत्से को न समझ पाओगे। लाओत्से को समझने के लिए लाओत्से जैसा हो जाना जरूरी है। यह पहली बात खयाल रखनी आवश्यक है।
लाओत्से को समझने की चेष्टा में इस बात का ध्यान रखना कि लाओत्से किसी सिद्धांत को सिद्ध करने नहीं निकला है। उसका कोई सिद्धांत ही नहीं है। वह तो जीवन के सिद्धांत को खोजने निकला है। वह आरोपित नहीं कर रहा है कुछ, अगर कुछ हो जीवन में तो उसे खोलने की कोशिश कर रहा है। वह तथ्यों के ऊपर पड़े धूंघट को उठा रहा है। उस घूघट को उठाने में भी उसकी कला अनूठी है। क्योंकि वह बूंघट भी बहुत तरह से उठाया जा सकता है। रास्ते पर चलती एक स्त्री का चूंघट जबरदस्ती उठाया जा सकता है; बलात उसे निर्वस्त्र किया जा सकता है। लेकिन तब तुम देह को ही खोज पाओगे; उस देह के भीतर छिपी गरिमा विलुप्त हो जाएगी। क्योंकि बलात, सौंदर्य को देखा ही नहीं जा सकता। सौंदर्य नाजुक है, टूट जाता है। सौंदर्य अति कोमल है; आक्रामक रूप से तुम सौंदर्य के रहस्य को कभी भी न जान पाओगे। यह तो ऐसा है जैसे झपट कर फूल तोड़ लिया, पंखुड़ियां उखाड़ दी, और खोजने लगे कि सौंदर्य कहां है?
तुम राह चलती एक स्त्री को निर्वस्त्र कर सकते हो, लेकिन नग्न न कर पाओगे। यही तो महाभारत की मीठी कथा है कि दुर्योधन द्रौपदी को नग्न करना चाहता है; कर नहीं पाया। कहानी का अर्थ इतना ही है कि जब तुम जबरदस्ती किसी को नग्न करने की चेष्टा करोगे तब तुम हारोगे। कोई कृष्ण ने द्रौपदी का चीर बढ़ा दिया हो, ऐसा मत समझ लेना। कौन बैठा है किसी का चीर बढ़ाने को? लेकिन जीवन की व्यवस्था ऐसी है कि उसमें जब तुम जबरदस्ती किसी के वस्त्र उतारना चाहोगे तब चीर बढ़ता ही चला जाता है जैसे कि चीर बढ़ता चला जाता है। तुम करते हो जितनी जबरदस्ती उतना ही रहस्य छिपता चला जाता है। रहस्य को खोलना हो तो फुसलाना पड़ता है, आक्रमण नहीं। रहस्य को खोलना हो तो प्रेम भरे आग्रह से जाना पड़ता है, हिंसात्मक दुराग्रह से नहीं।
दुर्योधन तो प्रतीक है उन सबका जिन्होंने जीवन के रहस्य को जबरदस्ती खोलना चाहा है। दुर्योधन बड़ा वैज्ञानिक है। और विज्ञान की यही विधि है। विज्ञान बलात्कार है, जबरदस्ती है। और इसलिए विज्ञान जितना ही चीजों को खोल रहा है, चीर बढ़ता जा रहा है। और चीर बढ़ता ही चला जाएगा।
एक बड़े वैज्ञानिक को मैं पढ़ रहा था, हेजेन बर्ग को। तो हेजेन बर्ग ने कहा है कि पहले हम सोचते थे कि अणु पर सब समाप्त हो जाता है। डेमोक्रीटस से लेकर अब तक यही खयाल था कि अणु का अर्थ है आखिरी टुकड़ा, उसके आगे विभाजन संभव नहीं है। लेकिन फिर चीर बढ़ गया। अणु टूटा, परमाणु आया। फिर सोचा गया कि परमाणु बस आखिरी बात आ गई, रहस्य खुल गया। लेकिन चीर बढ़ गया। जब-जब जाना कि रहस्य खुल गया, तभी चीर बढ़ गया। परमाणु भी टूट गया। अब इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, प्रोटान। और हेजेन बर्ग ने लिखा है कि अब हम
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