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धर्म का सूर्य अब पश्चिम में उगेगा
न रात सो सकूँगा। इससे तो बेहतर है मैं भाग जाऊं, युद्ध से पलायन कर जाऊं। सिर्फ जीतने की आकांक्षा से इतना बड़ा रक्तपात मुझसे नहीं होता। अर्जुन ने कहा कि मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं; मेरा गांडीव मेरे हाथ से छूटा जाता है; मेरे हाथ कंप रहे हैं। इससे खबर दी अर्जुन ने कि यह आदमी कम हिंसक है।
दुर्योधन को तो कोई सवाल ही न उठा। वह असंदिग्ध रूप से हिंसक है। अर्जुन की हिंसा में कम से कम विचार है, बोध है, होश है। यह छोड़ने को राजी है। यह धन को, राज्य को त्याग देना चाहता है। इसके भीतर एक समझ है। इसीलिए तो कृष्ण ने इतनी मेहनत करके इसे राजी किया कि तू लड़!
अब सारा गणित इतना है कि कृष्ण को दिखाई पड़ा साफ-साफ कि अर्जुन का लड़ना, अर्जुन का जीतना, कम बुरे लोगों के हाथ में सत्ता जाएगी। तो जहां दो बुराइयों में चुनना हो वहां कम बुराई को ही चुनना उचित है।
इस संसार में भलाई और बुराई के बीच तो चुनाव बहुत मुश्किल से खड़ा होता है; यहां तो चुनाव हमेशा कम बुराई और ज्यादा बुराई के बीच खड़ा होता है। यह तो ऐसे ही है कि जैसे तुम डाक्टर के पास जाओ और डाक्टर तुमसे कहे कि यह पैर इतना खराब है कि इसे काट डालो; अगर न काटोगे तो दोनों पैर खराब हो जाएंगे। क्या करोगे? डाक्टर के पास जाते हो, वह कहता है, यह एक दांत सड़ गया है, इसे अलग कर दो; अगर इसे अलग न किया तो बाकी दांत भी सड़ जाएंगे। क्या करोगे? कोई दांत निकालना सुखद तो नहीं है। एक पैर काटना कोई सुखद तो नहीं है। और डाक्टर कोई पैर काटने का हिमायती तो नहीं है कि वह कहता है सब लोग एक पैर काट डालो। न; वह यह कह रहा है कि इस स्थिति में अगर पैर न काटा गया तो दूसरा पैर भी काटना पड़ेगा। तो विकल्प दो हैं, या तो दोनों पैर कटेंगे या एक कटेगा। तो बेहतर है एक काट डालो। अब कोई विकल्प और है नहीं। विकल्प अगर यह हो 'कि दोनों पैर बचते हों तो डाक्टर भी नहीं कहेगा कि एक पैर काट डालो; वह कहेगा, कोई सवाल ही नहीं है। अगर सब दांत बचते हों तो डाक्टर भी कहेगा कि इलाज कर लो, दांत बचा लो।
कृष्ण ने सब तरह की कोशिश कर ली थी कि युद्ध टल जाए। सब तरह की कोशिश पांडवों ने कर ली थी कि युद्ध टल जाए। लेकिन वह संभव नहीं था। दूसरी तरफ बड़ा युद्धखोर आदमी था। हिंसा उसकी आंखों में थी। वह बिलकुल विक्षिप्त था। ऐसी अवस्था में यही एक उपाय था कि या तो संसार को दुर्योधन के हाथों में छोड़ दिया जाए। ये पांचों पांडव संन्यासी हो जाएं, हिमालय चले जाएं-जिसकी उनकी तैयारी थी; वे छोड़ देना चाहते थे। और इसलिए एक बड़ी बेबूझ घटना घटती है कि कृष्ण को युद्ध के लिए उन्हें तैयार करना पड़ता है। क्योंकि कृष्ण को लगता है कि अगर युद्ध ही होना है तो भले आदमी जीतें, जिनका युद्ध पर भरोसा नहीं है। अगर युद्ध ही होना है तो वे लोग जीतें जो छोड़ने को तैयार थे। अगर युद्ध-ही होना है तो अर्जुन जीते, दुर्योधन न जीते।
दो बुराइयों में कम बुराई को चुनने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
वही अवस्था मोहम्मद की भी थी। वे जिनसे भी लड़े हैं, उसका कारण कुल इतना था कि जिन लोगों के बीच वे थे, वे लड़ाई के अतिरिक्त दूसरी कोई भाषा ही नहीं समझते थे। कोई उपाय ही न था। जब तुम संसार में खड़े होते हो तो संसार में जो विकल्प होते हैं उन्हीं में से तो चुनोगे। मोहम्मद जिन खूखार लोगों के बीच में थे, वे सिर्फ तलवार की भाषा समझते थे। और अगर मोहम्मद लड़ने को राजी नहीं हैं तो जितने लोग मोहम्मद के पास ध्यान में, प्रार्थना में, धर्म में उत्सुक हुए थे, वे सब काट डाले जाएंगे। तो उपाय एक ही था—या तो धार्मिक लोग कट जाएं, अधार्मिक लोग जीत जाएं। या फिर धार्मिक लोग लड़ें।
यद्यपि लड़ने से कोई शांति नहीं आती, न कहीं हिंसा से अहिंसा आती है। लेकिन अच्छे आदमी की हिंसा से थोड़ी अच्छी हिंसा आती है, बुरे आदमी की हिंसा से बुरी हिंसा आती है। और अगर बुरी हिंसा, अच्छी हिंसा में चुनना हो तो अच्छी हिंसा ही बेहतर है।
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