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धर्म का सूर्य अब पश्चिम में उगेगा
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लेना। वह तो वरदान है। क्योंकि उसी हताशा से तो तुम जाग सकोगे, खोद सकोगे। उसी प्यास में तो तुम तड़पोगे और आखिरी सरोवर के किनारे आ सकोगे। प्यास ही न हो तो कोई सरोवर तक कैसे जाएगा?
इसलिए प्यास को तुम दुर्भाग्य मत समझो। हां, प्यास अगर धीमी-धीमी लगी हो कि टाली जा सके तो दुर्भाग्य समझना । प्यास ऐसी अदम्य रूप से पकड़ ले कि रोआं- रोआं जले, एक क्षण चैन न मिले, सागर जब तक न पहुंच जाओगे तब तक विश्राम न कर सकोगे, ऐसे आविष्ट हो जाओ; प्यास न रहे, बल्कि तुम ही प्यास हो जाओ, रो-रो पुकारे; तभी तुम पार कर पाओगे वह दूरी जो मन और आत्मा के बीच है। वह दूरी बहुत बड़ी है।
शरीर और मन के बीच दूरी है ही नहीं; है तो अत्यल्प है। मन और आत्मा के बीच दूरी अत्यंत है; अत्यंत भी कहना ठीक नहीं, अनंत है। क्योंकि मन क्षणभंगुर, आत्मा शाश्वत; मन पानी का बुलबुला, अभी है, अभी फूट जाए; आत्मा, न जिसका कोई आदि, न कोई अंत, जो सदा है। भाषा ही और। दोनों के बीच कोई भी तालमेल नहीं, कोई भी सेतु नहीं। बहुत थोड़े लोग ही पार कर पाते हैं।
थाईलैंड में एक मंदिर है । और उस मंदिर में एक बड़ी प्राचीन कथा है, और बड़ी मधुर है। उस मंदिर में एक विजय स्तंभ है जिसमें सौ सीढ़ियां हैं, टावर है। उन सीढ़ियों पर चढ़ कर ऊपर जाकर चारों तरफ बड़ा सुंदर दृश्य है। कथा यह है कि उस विजय स्तंभ की पहली सीढ़ी पर एक अदृश्य पशु का वास है; पहली सीढ़ी पर एक अदृश्य पशु का वास है। वह पशु सांप जैसा है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता, अदृश्य है । और जब भी कोई व्यक्ति चढ़ता है सीढ़ियां तो जितनी व्यक्ति की चेतना की ऊंचाई होती है— समझो दस सीढ़ियों तक – तो वह सांप दस सीढ़ियों तक उसके साथ जाता है। वहीं तक जा सकता है जहां तक व्यक्ति की चेतना की ऊंचाई है। बीस सीढ़ियों तक, तो बीस सीढ़ियों तक जाता है। उस सांप को अभिशाप है कि जब तक वह तीन बार आखिरी सीढ़ी तक नहीं पहुंच जाएगा तब तक मुक्त न हो सकेगा । और अब तक अनंत अनंत काल में केवल एक बार वह आखिरी सीढ़ी तक पहुंच पाया है। हजारों यात्री आते हैं रोज मंदिर बड़ा तीर्थ का स्थान है। हजारों यात्री चढ़ते हैं उन सीढ़ियों पर । कभी एक सीढ़ी, कभी दो सीढ़ी, कभी तीन सीढ़ी; आधे तक भी कभी-कभी पहुंच पाया है। आखिरी सीढ़ी पर, कहते हैं, केवल एक बार जब कोई बुद्ध पुरुष आया होगा। वह प्रतीक्षा उसे करनी है। और अब वह थक गया है, हताश हो गया है। क्योंकि अनंत काल में केवल एक बार बुद्धत्व के साथ आखिरी सीढ़ी तक पहुंचा है। और तीन बार पहुंचना है। अब तो उसने आशा भी खो दी होगी। तीन बुद्धों को पाना मुश्किल है अनंत काल में !
निश्चित ही, मन और आत्मा के बीच फासला बहुत बड़ा होगा। कितने करोड़ करोड़ लोग पैदा होते हैं, लेकिन कभी कोई एक उस परम दशा को उपलब्ध होता है, जिसको उपलब्ध किए बिना कोई भी चैन से न रह सकेगा; जिसको उपलब्ध करना प्रत्येक की नियति है; जिसको तुम कितना ही टालो, तुम टाल न पाओगे; जिसे तुम्हें पाना ही होगा; जिससे बचने की कोई सुविधा नहीं है। फासला बहुत है । और बड़े श्रम की जरूरत है; अभीप्सा की जरूरत है, आकांक्षा की नहीं। अभीप्सा का अर्थ होता है, तुम सब दांव पर लगा दो; तुम कुछ भी न बचाओ । तो ही शायद कदम उठ पाए, और तुम वह छलांग ले सको जो तुम्हें मन से आत्मा में उतार दे।
स्वभावतः, पश्चिम में बड़ी निराशा है, अर्थहीनता है, विषाद है। लेकिन इससे पूरब के लोग समझते हैं कि हम बड़े सौभाग्यशाली ! इस भूल में मत पड़ना । इस भूल में कभी भी मत पड़ना, क्योंकि पूरब में धर्मगुरु, साधु-संन्यासी लोगों को यही समझाते हैं कि तुम सौभाग्यशाली हो; पश्चिम में देखो कितना विषाद है !
तुम अभागे हो। तुम्हारी शरीर की जरूरतें पूरी नहीं हुईं। इसलिए तुम में से बहुतों को तो पहला विषाद भी नहीं पकड़ा है जो कि शरीर से मन जाने में पकड़ता है। तुम्हारी मन की जरूरतें भी पूरी नहीं हुईं। इसलिए तुम्हें दूसरा विषाद भी नहीं पकड़ा है। तुम यह मत सोचना कि तुम बड़े सौभाग्यशाली हो ।