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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ उदासी आएगी। क्योंकि शरीर की दौड़ पूरी हो गई और आगे कोई यात्रा का द्वार न खुला। उदासी का एक ही अर्थ है, वह तभी आती है जब एक पड़ाव आ जाता है और आगे का रास्ता नहीं सूझता। उदास सभी नहीं होते, केवल सौभाग्यशाली होते हैं। दुखी होना एक बात है, दुखी तो सभी होते हैं; उदास सिर्फ सौभाग्यशाली होते हैं। उदासी बड़ा गुण है। उदासी का अर्थ यह है कि यहां तक यात्रा थी, पा लिया; अब? वह जो अब है, जब वह सामने खड़ा हो जाता है और कोई द्वार नहीं दिखता, कोई मार्ग नहीं दिखता, तब उदासी घेरती है। उदासी का अर्थ है, अब वही-वही दोहरा-दोहरा कर करना पड़ रहा है जो कर चुके। अब उस करने में न तो कोई रस मालूम पड़ता है, न उस करने से कोई आनंद की झलक मिलती है। वह रस उबाने वाला हो गया अब। संभोग कर लिया, भोजन कर लिया, विश्राम कर लिया, भवन बना लिए, सब व्यवस्था कर ली सुविधा की। अब? शरीर का काम पूरा हो गया; अब तुम्हारी प्राण-ऊर्जा नयी यात्रा पर जाना चाहती है और द्वार नहीं मिलता। इसका नाम उदासी है। अगर तुम इस उदासी को तोड़ने के लिए सतत रूप से जागरूक न हुए, और तुमने कोई प्रयास न किया, तो द्वार अपने आप न खुलेगा। मनुष्य के जीवन में अपने आप अब कुछ भी न होगा; अर्जित करना होगा। मनुष्य की यही गरिमा है कि वह भिखारी नहीं है, वह दान नहीं मांगता; वह केवल अपने श्रम का पुरस्कार चाहता है। उससे ज्यादा का मांगना कोई सार्थक भी नहीं है। और मिल भी जाए तो मिलेगा नहीं; मिल भी जाए तो बोझ होगा, क्योंकि तुम्हारी तैयारी न होगी उसे भोगने की। अगर तुमने श्रम किया तो तुम मन की यात्रा पर निकलोगे। काव्य है, संगीत है, सौंदर्य है; ये बारीक स्वाद हैं। भोजन है, संभोग है; ये बहुत स्थूल स्वाद हैं। इसका अर्थ है कि तुम्हारी चेतना बहुत परिष्कृत नहीं है। जो आदमी संगीत में रस ले पाता है; जो आदमी काव्य की गहनताओं में उतर पाता है; जो सुबह उगते सूरज के सौंदर्य में वैसा ही रस पाता है जैसा कि संभोग में भी नहीं पाया; उससे भी बड़े रस का अनुभव करता है रात आकाश के तारों में, नदी की कलकल में, गिरते झरने के संगीत में; भोजन से भी जो स्वाद नहीं पाया उससे भी गहन स्वाद अनुभव करता है; इस आदमी की मन की यात्रा शुरू हो गई। लेकिन मन की यात्रा भी जल्दी ही पड़ाव पर पहुंच जाएगी। फिर उदासी पकड़ लेगी। और पहली उदासी से दूसरी उदासी ज्यादा सघन होगी। क्योंकि शरीर से मन की यात्रा पर जाना बहुत कठिन नहीं है। शरीर और मन बड़े करीब हैं; इतने करीब हैं कि जरा सी समझ हो कि तुम शरीर से और मन की यात्रा पर निकल जाओगे। वे पड़ोसी हैं। दोनों के मकान में बहुत अंतर नहीं है, जरा सा अंतर है। वस्तुतः अंतर नहीं है; जैसे यह कमरा है और पास का कमरा है, बीच में द्वार है। शरीर से तुम मन में जा सकते हो, क्योंकि शरीर की भाषा और मन की भाषा में स्थूल और सूक्ष्म का भेद है, लेकिन कोई मौलिक भेद नहीं है। संगीत में भी वही अनुभव होता है जो संभोग में-बड़े सूक्ष्म तल पर। सौंदर्य में भी वही स्वाद आता है जो भोजन में बहुत सूक्ष्म तल पर। लेकिन भाषा एक ही है। जो जानते हैं, वे कहते हैं, शरीर और मन दो नहीं है; एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा समझो कि शरीर है मन का प्रकट रूप और मन है शरीर का अप्रकट रूप। ऐसा समझो कि तुमने बर्फ के एक टुकड़े को पानी में तैरा दिया है। तो नौ हिस्सा पानी में छिप जाता है बर्फ का टुकड़ा और एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता रहता है। जो ऊपर दिखाई पड़ता है वह तुम्हारा शरीर है, जो भीतर डूबा हुआ है वह तुम्हारा मन है। इसलिए मन और शरीर दो हैं, ऐसा कहना उचित नहीं। एक ही हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। मन थोड़े गहरे में है, शरीर थोड़े ऊपर है। इसलिए शरीर से मन में जाने में बहुत कठिनाई नहीं है। वहां भी उदासी पकड़ती है। लेकिन वह उदासी बहुत बड़ी नहीं है; थोड़े ही श्रम से टूट जाएगी। लेकिन जब शरीर और आत्मा के बीच तुम खड़े हो जाओगे तब महा उदासी तुम्हें पकड़ लेगी। वह उदासी केवल बुद्धों को पकड़ती है। उसे तुम दुख मत मान लेना, अभिशाप मत समझ 262
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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