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________________ ताओ उपनिषद भाग६ शासन धीरे-धीरे अपने जाल फैलाता जाता है। वह आक्टोपस की भांति है, जिसके आठ पंजे हैं, चारों तरफ फैलाता जाता है। शुरू में तो रक्षक की तरह जन्म होता है शासन का; जल्दी ही वह भक्षक हो जाता है। क्योंकि जिसके हाथ में तुमने ताकत दे दी, ताकत देते ही उस व्यक्तित्व का गुणधर्म बदल जाता है। शक्ति के मिलते ही व्यक्ति दुरुपयोग शुरू कर देता है। शक्ति का सदुपयोग करना बहुत कठिन है। शक्ति का सदुपयोग करना तो संत ही जानते हैं। लेकिन संत तो राजी न होंगे शासक बनने को। शक्ति की आकांक्षा संतों में नहीं होती, लेकिन शक्ति का उपयोग करना वे जानते हैं। और जिनमें शक्ति की आकांक्षा होती है, जो शक्तिवान होना चाहेंगे, वे शक्ति का उपयोग करना नहीं जानते, वे दुरुपयोग करना जानते हैं। शक्ति की आकांक्षा दुर्बल व्यक्ति में होती है, सबल व्यक्ति में नहीं। तुम्हारे पास जो नहीं है, उसी की तो तुम आकांक्षा करते हो। इसलिए जो व्यक्ति भी राज्य में पहुंच जाता है, सत्ताधारी हो जाता है, सत्ताधारी होते ही विक्षिप्त उसकी दशा हो जाती है। फिर वह भूल ही जाता है-क्यों आया, क्यों भेजा गया, क्या कारण थे? बात तो उसने की थी कि सेवा करने को जा रहा है सत्ता में; सत्ता में पहुंचते ही वह चाहता है, सब उसकी सेवा करें। और सत्ता में . पहुंचते ही वह जो व्यक्ति तुमने भेजा था, वही नहीं रह जाता; वह दूसरा ही व्यक्ति है जो पहुंचता है। भेजते तुम किसी को हो, पहुंचता कोई और है। क्योंकि मध्य में क्रांति घटित हो जाती है। सत्ता को झेलने की क्षमता, और सत्ता मिल जाने पर अपरिवर्तित रहने की क्षमता तो संत में हो सकती है। अब यह एक उलझन है। संत शक्ति चाहता नहीं; मिल जाए तो भी राजी न होगा। क्योंकि वह अपने में काफी पर्याप्त है, वह किसी और का शासक नहीं होना चाहता। वह तो सिर्फ आत्म-शासन चाहता है, अपना शासन अपने ऊपर चाहता है। उसे दूसरों पर शासन करने में कोई रस नहीं है। वह तो रस उन्हीं को होता है जो अपने पर शासन करने में समर्थ नहीं हैं। जिनके जीवन में मालकियत नहीं है, वही किसी और के स्वामी होना चाहते हैं। तुम संन्यासियों को मैंने स्वामी कहा है, सिर्फ इसी कारण कि तुम अपने स्वामी होना चाहना। तुम दूसरे के स्वामी होना चाहो तो तुम राजनीतिज्ञ हो; तुम अपने स्वामी होना चाहो तो तुम धार्मिक हो। मालकियत अपनी संत चाहता है, दूसरे पर कोई मालकियत नहीं चाहता। तो संत को राजी करना मुश्किल कि वह सत्ता में चला जाए; सत्ता दो तो भी लेगा न। और संत ही योग्य था सत्ता में होने के, क्योंकि उससे दुरुपयोग नहीं हो सकता था। और जो पागल लोग सत्ता में पहुंचने के लिए दौड़ कर रहे हैं, वे सत्ता के दीवाने हैं। जब तक सत्ता नहीं मिली है, तब तक तुम उनकी आंखों में विनम्रता पाओगे, वे तुम्हारे पैर दबाएंगे। जब उनके हाथ में सत्ता होगी तब तुम्हारी गर्दन दबाएंगे। तब उनकी आंखों की विनम्रता खो जाएगी। तब तुम उनमें महा अहंकार की अग्नि को प्रज्वलित देखोगे। तब उनके पैर जमीन पर न पड़ेंगे। तभी उनका असली रूप प्रकट होगा। क्या किया जाए? भारत ने एक इसके लिए उपाय खोजा था। वह उपाय यह था कि संत तो सत्ता में जाने को राजी नहीं है और असंत सत्ता में जाने को अति आतुर है, तो एक ही उपाय है कि जो भी सत्ता में हो वह संतों के चरणों में बैठे। और तो कोई उपाय नहीं है। इसलिए संत तो चले जाते थे जंगलों में, लेकिन सम्राट उनकी तलाश करते थे-सत्संग के लिए। क्योंकि उनसे शायद झलक, बस उनसे ही केवल झलक की आशा थी कि सत्ता का दुरुपयोग न हो पाए। संत सत्ता से ऊपर होना चाहिए। जब संत सत्ता से ऊपर हो तो सत्ता तो उसके हाथ में नहीं है, लेकिन सत्ता उसके निर्देश से चलने लगेगी, उसके उपदेश से चलने लगेगी। संत को राजा बनाने के लिए तो राजी नहीं किया जा सकता, लेकिन राजा संत के चरणों में बैठ कर शिष्य तो बन सकता है। उसके लिए राजा को राजी किया जाना चाहिए। तो एक तालमेल बन सकता है। तो ही यह संभव है कि शासन भक्षक न बन पाए। अन्यथा शासन भक्षक हो जाएगा। 246
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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