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________________ अभय और प्रेम जीवन के आधार छों असंभव है प्रेम से बचना। प्रेम से भागना असंभव है। प्रेम के विरोध में जाना असंभव है। प्रेम इस जगत में सबसे बड़ी शक्ति है। वह एक बाढ़ की भांति आता है और तुम्हें निखार जाता है। लेकिन प्रेम की कमी हमने भय से पूरी करनी चाही है। और परिवार के बीज भय में बोए जाते हैं। फिर परिवार से समाज बनता है। समाज से राष्ट्र बनता है; राष्ट्रों से संसार बन जाता है। और बीज बुनियाद में भय का है। इसलिए हर जगह भय का साम्राज्य है। जब भी तुम्हें किसी को सुधारना हो, भयभीत करो। धर्मगुरु भी वही करता है। राजनेता करे, समझ में आता है; क्योंकि राजनेता से हम कोई बड़ी समझ की आशा नहीं कर सकते। समझदार होता तो राजनेता ही न होता। राजनीतिज्ञ से हम कोई मानवीय जीवन की गहराई का बोध नहीं मांग सकते। वही बोध होता तो वह महत्वाकांक्षा की दुनिया में न होता। राजनेता को छोड़ दें। लेकिन धर्मगुरु भी भय की ही बात करता है; नरकों की बात करता है कि सड़ाए जाओगे, गलाए जाओगे, मारे जाओगे। वह भी भय से ही चाहता है लोग धार्मिक हो जाएं। अब यह बिलकुल असंभव है। भय से कभी कोई धार्मिक नहीं हुआ। भय ही तो अधर्म का मूल है। प्रेम धर्म का मूल है। भय का अर्थ है, हम तुम्हें काटेंगे, बदलेंगे। प्रेम का अर्थ है, तुम जैसे हो हम तुम्हें वैसा ही स्वीकार करते हैं। और मजा तो यह है कि भय काट-काट कर भी नहीं बदल पाता, और प्रेम बिना काटे बदल देता है। जैसे ही तुम किसी को प्रेम करते हो, बदलाहट शुरू हो गई। प्रेम की आंख पड़ी नहीं कि किरण आ गई अंधेरे में; प्रेम का स्पर्श हुआ नहीं कि दूसरे जगत का बुलावा आ गया। तुम जिसे प्रेम करते हो, तत्क्षण तुम उसे कुलीन कर देते हो। वह साधारण मनुष्य-जाति का हिस्सा नहीं रहा। पंख लग गए। अब तुम्हारे प्रेम को पाने के लिए, अब तुम्हारे प्रेम को बनाए रखने के लिए, अब तुम्हारे प्रेम की वर्षा जारी रहे इसके लिए वह रोज-रोज ऊपर उठता जाएगा। प्रेम नहीं कहता कि बदलो; और बदलता है। भय कहता है कि बदलो, नहीं बदलोगे कष्ट पाओगे; और कभी नहीं बदल पाता। इसे तुम जीवन की कीमिया का बहुत आधारभूत नियम समझ लेना कि जो किसी को बदलना चाहता है वह कभी नहीं बदल पाता। बदलने वाले ही लोगों को बिगाड़ते हैं। समाज-सुधारक समाज को नष्ट और भ्रष्ट करते हैं। अच्छे मां-बाप बच्चों को नरक की यात्रा पर भेज देते हैं। कहावत है कि नरक का रास्ता शुभाकांक्षाओं से भरा पड़ा है। अच्छी करते हो आकांक्षा, लेकिन अगर आकांक्षा भय पर ही आधार बना रही है तो तुम नरक ही भेजोगे, स्वर्ग न भेज पाओगे। इसलिए तो सारी मनुष्य-जाति ऐसी भय-कातर, ऐसी दुख में पड़ी है, ऐसी सड़ी-गली अवस्था में है। सिवाय दुर्गध के कुछ उठता हुआ नहीं मालूम पड़ता। तो भय ने उन लोगों को मिटाया जो भयभीत हो गए। और भय ने उन लोगों को भी मिटा दिया जो भय के विपरीत खड़े हो गए। घर में अगर पांच बच्चे हैं तो शायद चार डर जाएंगे। लेकिन एक उनमें जरूर ऐसा होगा जो तुम्हारे डराने के कारण ही बगावती हो जाए। तुमने जो-जो कहा है, वही तोड़ेगा। तुमने कहा है, मत जाओ अंधेरे में बाहर। तो अंधेरे में बुलावा अनुभव होगा। तुमने कहा, मत तैरो नदी में जाकर। तो नदी में एक अदम्य आकर्षण हो जाएगा, एक अनिवारणीय आमंत्रण मिल जाएगा नदी से। जाना ही पड़ेगा; कोई अब रोक न सकेगा। तुम्हारा निषेध रस पैदा करेगा अहंकारी में, और जिनके अहंकार कच्चे हैं उनको भयभीत कर देगा, भयातुर कर देगा। जो भयभीत हो जाएगा वह जिंदगी भर डरता रहेगा। दफ्तर में जाएगा तो दफ्तर के मालिक से डरेगा; विवाह करेगा तो पत्नी से डरेगा; बच्चे पैदा हो जाएंगे तो बच्चों से डरेगा; रास्ते पर चलेगा तो डरेगा; घर में बैठा होगा तो डरेगा। उसके जीवन में एक कंपन समाविष्ट हो जाएगा। भय उसका स्वभाव हो जाएगा। और जो चुनौती ले लिया और अहंकार की यात्रा पर निकल गया, वह जिंदगी भर तोड़ने में संलग्न रहेगा। अगर वह असंस्कृत हुआ तो अपराधी हो जाएगा; अगर संस्कृत हुआ तो क्रांतिकारी हो जाएगा। अगर नासमझ हुआ तो चोरी करेगा, डकैती करेगा। 227
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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