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मुक्त व्यवस्था-संत और स्वर्ग की
इसलिए तो हिंदू कहते रहे हैं कि कर्म से जो छूट गया वही वस्तुतः छूटता है। जो कर्म से छूट जाता है वह न तो स्वतंत्र रह जाता, न परतंत्र; उसको हम मुक्त कहते हैं। वह दोनों से मुक्त हो जाता है। उसका फिर कोई आवागमन नहीं है। फिर जैसे अब वह परमात्मा के जाल में फंसी मछली न रहा, बल्कि स्वयं परमात्मा का जाल हो गया, परमात्मा के साथ एक हो गया।
- हमारे पास तीन शब्द हैं जो बड़े महत्वपूर्ण हैं। और वैसे शब्द दुनिया की और भाषाओं में नहीं हैं, वह भी विचारणीय है। एक शब्द है नरक; दुनिया की भाषाओं में उसके लिए शब्द हैं। स्वर्ग; उसके लिए भी शब्द हैं। तीसरा शब्द है मोक्ष; उसके लिए दुनिया की किसी भाषा में कोई शब्द नहीं है। नरक, बुरा तुमने किया उसका परिणाम है। स्वर्ग, भला तुमने किया उसका परिणाम है। मोक्ष, तुमने कुछ भी न किया, न भला न बुरा न सोचा, न भला न बुरा; न भाव किया, न भला न बुरा; तुम निर्भाव, निर्विचार, अकर्ता हो गए, अकर्म में डूब गए; उस दशा में जो फलेगा वह मोक्ष है। उस दशा में तुम परमात्मा ही हो गए। वह परम मुक्ति है।
स्वर्ग भी बंधन है, क्योंकि सख लेने के लिए तुम मजबूर किए जाओगे। उससे तुम बच नहीं सकते। तुमने पुण्य किया, सुख तुम्हें लेना ही पड़ेगा। तुम यह नहीं कह सकते कि पुण्य मैंने किया, अब मैं सुख नहीं लेना चाहता। वह मजबूरी है। वह लेना ही पड़ेगा। पाप किया, दुख लेना ही पड़ेगा। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं नहीं लेना चाहता। एक पैर उठा लिया, दुसरा फंस गया।
एक ऐसी भी दशा है चेतना की जब तुम न पुण्य करते न पाप, जब तुम करते ही नहीं, जब तुम अकर्ता हो जाते हो। वही परम समाधि है। उस परम समाधि को उपलब्ध व्यक्ति परमात्मा हो जाता है।
आज इतना ही।
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