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ताओ उपनिषद भाग ६
इसे तुम ऐसा समझो कि तुम मुझे सुनने आए हो। मैं कुछ नयी बातें कह रहा हूं। बहुत थोड़े से लोग मुझे सुनने आ पाएंगे। वे बहुत अल्प होंगे। क्योंकि नये की सुनने की क्षमता भीरु आदमी में होती ही नहीं। लेकिन ध्यान रखना, जैसे ही मैं विदा हो जाऊंगा, जो मैंने कहा था उसको तुम न बचा सकोगे; उसको भीरु आदमी बचाएगा। तुम तो फिर कोई नयी बात कहने आ जाएगा तो उसको सुनने चले जाओगे। भीरु नहीं जाएगा। वह अभी मुझे सुनने नहीं आया। वह कल जब मेरी बात को पकड़ लेगा तो वह किसी और को सुनने नहीं जाएगा। वही बचाने वाला होगा।
भीरु संरक्षक है। निर्भीक जन्मदाता है। तुम ऐसा समझो कि इस जीवन के रहस्य में निर्भीक मां है और भीरु दाई है। और मां जन्म देकर विदा हो जाती है और दाई के ऊपर ही सारा दायित्व है। निर्भीक पैदा करने में समर्थ है; वह नया रास्ता बनाता है। भीरु देखता रहता है। जब तक कि रास्ता पूरा न बन जाए, जब तक कि बहुत लोग रास्ते पर चल न लें, जब तक कि भीरु को खबर न मिल जाए, आश्वासन न हो जाए विश्वस्त सूत्रों से कि हां, वह रास्ता पहुंचाता है, तब तक भीरु कदम नहीं उठाता। जैसे ही रास्ता सुनिश्चित हो जाता है, नक्शे उपलब्ध हो जाते हैं, भीरु सोच-विचार लेता है, सुरक्षा-असुरक्षा की सब बात तय हो जाती है, तब भीरु कदम उठाता है। फिर वह बचाता है उस रास्ते को। इसी तरह वह पुराने रास्तों को बचा रहा है।
और भी एक बात समझ लेने जैसी है कि भीरु कसौटी है। जब भीरु किसी रास्ते पर जाने लगे, उसका अर्थ यह है कि सब कसौटियों पर वह रास्ता खरा उतर गया। निर्भीक तो नये पर जाने को आतुर होता है, बिना चिंता किए कि कहीं जाएगा यह रास्ता या नहीं जाएगा! तो निर्भीक सौ में से निन्यानबे मौकों पर तो भटकता है। वह तो कोई भी आवाहन मिल जाए उसे नये का तो तत्पर होता है जाने को। लेकिन नया सदा ठीक ही थोड़ी होता है। न तो पुराना सदा गलत होता है, न नया सदा ठीक होता है। नया बहुत बार गलत होता है, पुराना भी बहुत बार ठीक होता है। नये-पुराने से ठीक-गलत का कोई संबंध ही नहीं है। भीरु कसौटी है। जब भीरु भी जाने लगे तब समझना कि मार्ग सारी कसौटियों पर पूरा उतरा। तभी तो भीरु जाएगा, अन्यथा वह जाने वाला नहीं। भीरु बचाता है। भीरु कसौटी है।
लेकिन उसके खतरे भी हैं। क्योंकि वह नये पर जाने नहीं देता, वह पुराने को पकड़े रहता है। चाहे पुराने से कहीं पहुंच भी न रहा हो तो भी पकड़े रहता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम बीस साल से मंत्र का जाप कर रहे हैं। मैं उनसे पूछता हूं, कुछ हो रहा है? तो कुछ हो तो नहीं रहा। मंत्र छोड़ो, मैं तुम्हें कुछ और बताऊं। वे कहते हैं, यह कैसे हो सकता है? मंत्र तो गुरु ने दिया था। बीस साल करते भी हो गए; अब छोड़ तो नहीं सकते। कुछ हो भी नहीं रहा। कहीं पहुंच भी नहीं रहे। जैसे निर्भीक नये के प्रति आतुर होता है वैसा भीरु पुराने के प्रति आविष्ट होता है। इतने दिन से कर रहे हैं; कैसे छोड़ दें? वे यह भी सोचते ही नहीं कि पहुंच रहे हैं, नहीं पहुंच रहे हैं? औषधि काम कर रही है, नहीं कर रही है? वह सिर्फ पकड़ने का आदी होता है।
तो भीरु बचाता तो है, लेकिन वह कचरे को भी बचा लेता है। वह गलत को भी बचा लेता है। वह बचाने में ही उत्सुक है। वह अंधी दाई है। उसे पता भी नहीं रहता कि बच्चा मरा हुआ है। तो भी बचाए रखती है, छाती से लगाए रखती है। तुमने कभी बंदरिया को देखा हो, मरे बच्चे को छाती से लगाए वह कई दिनों तक घूमती रहती है। उसे पता ही नहीं कि बच्चा मर गया है।
भीरु को पता ही नहीं चलता कि चीजें जीवित होती हैं वे भी मर जाती हैं; जो मार्ग कभी पहुंचाता था, वह सदा नहीं पहुंचाएगा। मार्ग भी जीते हैं और मर जाते हैं। धर्म भी जन्मते हैं और मर जाते हैं। विचार की पद्धतियां कभी जवान होती हैं, बूढ़ी होती हैं, मरती हैं। इस जगत में हर चीज का मौसम है और हर चीज की अवस्था है। जैसे बच्चे, बूढ़े ऐसे ही धर्म भी बचपन, जवानी, बुढ़ापे से गुजरते हैं। आज से पांच हजार साल पहले कोई चीज जवान थी, वह
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