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ताओ उपनिषद भाग ६
इसलिए समाज धर्म के भी विपरीत होता है। क्योंकि समाज को डर लगता है कि ये धार्मिक व्यक्ति भी समाज को ऐसे ही लगते हैं जैसा निर्भय व्यक्ति लगता है; यद्यपि वह निर्भय नहीं है, वह अभय है। पर इतनी बारीक चीजें समाज की बुद्धि के बाहर हैं। समाज की बुद्धि तो बड़ी मोटी, कामचलाऊ बुद्धि है। वहां हिसाब बहुत बाजारू है। वहां बारीक, सूक्ष्म और नाजुक की कोई गति नहीं है। वह तो ऐसे ही है जैसे कि कोई साग-सब्जी तौलने वाले के पास तुम हीरे लेकर पहुंच जाओ और वह साग-सब्जी तौलने के बटखरों से हीरों को तौल दे। वह उसकी पकड़ के बाहर है। हीरे कहीं साग-सब्जी तौलने वाले बटखरों से तौले जाते हैं?
समाज की बुद्धि तो बड़ी साधारण, स्थूल है। समाज तो भीड़ है। भीड़ के पास कोई प्रतिभा होती है? भीड़ के पास तो निम्नतम प्रतिभा होती है। मनसविद कहते हैं कि अगर भीड़ के अलग-अलग व्यक्तियों की बुद्धि नापी जाए तो उसका जोड़ भी भीड़ की बुद्धि नहीं होता। यहां तुम अगर सौ मित्र बैठे हो, तो तुम्हारी प्रत्येक व्यक्ति का बुद्धि-माप अलग-अलग ले लिया जाए, तो उतना जोड़ भी तुम्हारी भीड़ का नहीं होता। और एक और अनूठी घटना मनसविद कहते हैं कि भीड़ में व्यक्ति अपनी बुद्धिमत्ता को भी खो देता है, और भीड़ में जो आखिरी आदमी होता है वह निर्णायक होता है, प्रथम आदमी निर्णायक नहीं होता। भीड़ में बुद्धिमान आदमी खो जाता है और मूढ़ प्रधान हो । जाते हैं। क्योंकि भीड़ एक तरह का पतन है। तुम अपना दायित्व खो देते हो। एकांत में मनुष्य का निजता का फूल खिलता है; भीड़ में सारी प्रतिभा खो जाती है।
इसलिए तुम्हें कभी अनुभव हुआ होगा, जब भी तुम भीड़ से लौटते हो तो तुम्हें लगता है तुम कुछ खोकर लौटे। और दुनिया में जो बड़े से बड़े पाप होते हैं वे भीड़ के कारण होते हैं। अकेले आदमियों ने बड़े पाप नहीं किए हैं। हिंदुओं की भीड़ जो पाप कर सकती है वह कोई हिंदू अकेले में नहीं कर सकता। मुसलमानों की भीड़ जो कर सकती है भीड़ की तरह, एक मुसलमान अकेले में नहीं कर सकता। लाखों की हत्या की जा सकती है। तुम एक-एक मुसलमान और एक-एक हिंदू से पूछो कि क्या सार हुआ तुम्हें इन मुसलमानों के घरों में आग लगा देने से, या हिंदुओं का मंदिर जला देने से? अगर तुम एक-एक मुसलमान से पूछो तो वह भी डरेगा। वह भी कहेगा कि नहीं, यह उचित नहीं हुआ। और मुझे पता नहीं कैसे हो गया! मैंने कुछ किया भी नहीं, भीड़ में साथ हो गया। भीड़ तुम्हें पोंछ देती है। तुम्हारे दायित्व को, तुम्हारी समझ को, तुम्हारी प्रतिभा को धूल भर देती है। भीड़ एक बड़ा पतन है।
अगर बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट और मोहम्मद जंगल की तरफ भागते हैं तो उसका कारण यह नहीं है कि समाज बुरा है, उसका कुल कारण इतना है कि वे चाहते हैं कि एकांत मिल जाए। भीड़ की खींचती हुई आकर्षण की धारा नीचे की तरफ लाती है; वे अकेले होना चाहते हैं। क्योंकि दुनिया में जीवन का श्रेष्ठतम फूल अकेले में ही खिला है। कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण भीड़ में नहीं पैदा हुआ; भीड़ में नहीं हो सकता। एकांत में! हां, फूल खिल जाए, फिर वह भीड़ में वापस लौट आता है। लेकिन खिलने की घटना अकेले में होती है।
इसलिए एकांत का इतना मूल्य है। वह भीड़ की दुर्गति से बचने का उपाय है। कुछ बातें और समझ लें, फिर हम सूत्र में प्रवेश करें।
लाओत्से कहता है कि बुरे को, असाधु को, दुस्साहसी को समाज मिटा देता है; भले को, सज्जन को, साधु को बचा लेता है। संत कहां हैं फिर? संत के साथ समाज बड़ी दुविधा में रहता है। क्योंकि संत में लक्षण तो दोनों के होते हैं-साधु के, असाधु के। क्योंकि वह तो निर्द्वद्व है, अद्वैत है। उसमें तो साधु-असाधु दोनों मिल कर एक हो गए हैं। वह तो संगीत है जीवन के विरोधों का। संत के साथ समाज क्या करे? बड़ी दुविधा खड़ी होती है।
तो समाज एक रास्ता निकालता है। जब संत जीवित होता है तब उसका विरोध करता है, जैसे असाधु का करना चाहिए। जब संत मर जाता है तब उसका सम्मान करता है, जैसा साधु का करना चाहिए। यह समझौता है
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