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________________ मुक्त व्यवस्था-संत और स्वर्ग की तुमने कभी विचार किया या कभी देखा कि जो आदमी चोर है वह जब चोरी नहीं भी करता तब भी तो उसकी भाव-दशा चोर की ही होती है। चोरी नहीं भी करता-कोई चोर चौबीस घंटे तो चोरी करता नहीं, रोज तो चोरी करता नहीं-जब चोर चोरी नहीं करता तब वह कौन होता है? क्या वह अचोर होता है? कृत्य तो नहीं है। लेकिन कृत्य के न होने से क्या चोर अचोर हो जाता है? दो चोरी के बीच में चोर कैसा होता है? अंतरधारा बहती रहती है चोरी की; मौके की तलाश में होता है। जब मौका मिल जाएगा तब चोर हो जाएगा। चोर तो है ही। मौके के कारण चोर नहीं बनता; मौके के कारण भीतर की अंतरधारा प्रकट हो जाती है। अभी छिपा था, अब प्रकट हो जाता है। अभी ढंका था, अब अनढंका हो जाता है। लेकिन भीतर की धारा तो चोर की ही होगी। जब कोई करुणावान व्यक्ति, कोई बुद्ध पुरुष, कोई करुणा का कृत्य नहीं कर रहा होता—न किसी के पैर दबा रहा है; न कोई गिर गया है उसे उठा रहा है; न कोई डूब रहा है पानी में उसे बचा रहा है; न किसी के मकान में आग लगी है और जाकर सेवा कर रहा है-जब दो करुणा के कृत्यों के बीच में बुद्ध पुरुष होते हैं तब कैसे होते हैं? कोई कृत्य तो नहीं होता, लेकिन भीतर बुद्धत्व की धारा होती है; भीतर करुणा बहती रहती है। उसी तरह जैसे चोर में चोरी बहती रहती है, कामी में काम बहता रहता है, लोभी में लोभ बहता रहता है, वैसे ही बुद्ध में ध्यान बहता रहता है, करुणा बहती रहती है, प्रेम बहता रहता है। दो करुणा के कृत्यों के बीच में भी बुद्ध बुद्ध होते हैं। कृत्य के कारण कोई बुद्ध नहीं होता; अंतरधारा के कारण कोई बुद्ध होता है। अब जरा ऐसा सोचो कि बुद्ध बैठे हैं, कोई करुणा नहीं कर रहे हैं। और एक चोर उनके पास बैठा है, कोई चोरी नहीं कर रहा है। दोनों एक जैसे हैं क्या इस वक्त? बुद्ध कोई बुद्धत्व का काम नहीं कर रहे हैं; चोर कोई चोरी का काम नहीं कर रहा है; दोनों पास बैठे हैं। बाहर से देखने पर तो दोनों एक जैसे हैं। समाज के लिए तो दोनों बराबर हैं। क्योंकि समाज तो केवल कृत्य को पहचानता है, आचरण को पहचानता है। जब तक कोई चीज आचरण न बन जाए, समाज की आंख की पकड़ में ही नहीं आती। तो अभी समाज के लिए तो दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। लेकिन क्या तुम कह सकोगे कि दोनों एक जैसे हैं? दोनों में उतना ही अंतर है जितना पृथ्वी और आकाश में। कृत्य बिलकुल नहीं है, पर अंतरधारा मौजूद है। चोर चोर है; बुद्ध बुद्ध हैं। तुम्हारे करने से तुम नहीं हो; तुम्हारे करने पर तुम्हारा होना निर्भर नहीं है। तुम्हारे होने से तुम्हारा कृत्य आता है। इसलिए मैं कहता हूं, धर्म सामाजिक घटना नहीं है; धर्म समाज से बड़े बाहर की घटना है। संप्रदाय सामाजिक घटना है। हिंदू होना सामाजिक है; मुसलमान होना सामाजिक है; जैन होना सामाजिक है। धार्मिक होना सामाजिक नहीं है। क्योंकि हिंदू, मुसलमान, जैन, पारसी, ईसाई, वे सबके सब तुम्हारे कृत्य की ही फिक्र कर रहे हैं। ईसाइयों की दस आज्ञाएं हैं; उनमें एक भी आज्ञा नहीं है होने के संबंध में। चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, दूसरे की स्त्री को बुरे भाव से मत देखो; सब कृत्यों की बातें हैं। समझ लो कि एक आदमी न चोरी करता, न किसी की स्त्री को लेकर भागता, न किसी की हत्या करता। क्या इतने न करने से वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएगा? उसकी अंतरधारा का क्या होगा? कृत्य तो रोका जा सकता है। अंतरधारा? उसे बदलना तो बड़ी क्रांति है। उसके लिए तो बड़े आंतरिक जीवन से गुजरना जरूरी है। उसके लिए तो बड़ी अग्नि से गुजरना जरूरी है। उसके लिए तो अपने को आमूल बदल लेना होगा। सभी संप्रदाय समाज के हिस्से हैं। वे समाज के वैसे ही हिस्से हैं जैसे अदालत। अदालत भी तुम्हें डराती है; संप्रदाय भी तुम्हें डराते हैं। धर्म समाज के बिलकुल बाहर है। धर्म तो अभय को उपलब्ध करवाता है। धर्म भय के बाहर ले जाता है; निर्भय के भी बाहर ले जाता है। धर्म अंधकार के बाहर प्रकाश की तरफ ले जाता है। धर्म आरोहण है आत्म-अज्ञान से आत्म-ज्ञान में। वह एक आंतरिक क्रांति है। 207
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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