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________________ संत स्वयं को प्रेम करते हैं इसलिए उपनिषद-जो संतों के वचन हैं, साधुओं के नहीं-उपनिषद कहते हैं, तुम ब्रह्म हो। और उपनिषद कहते हैं, सब कुछ ब्रह्ममय है; अन्न भी ब्रह्म है। इसलिए भूख लगे और तुम भोजन करो, तो तुम ब्रह्म को ही भोजन कर रहे हो। स्त्री भी ब्रह्म है। आकर्षण जगे, तो तुम यह फिक्र करना कि वह आकर्षण भी परमात्मा का ही आकर्षण बन जाए। स्त्री के माध्यम से भी तुम परमात्मा को ही खोजना। तुम अपने सब आकर्षणों को परमात्मा की ही खोज बना लेना। तब तुम्हारा मार्ग विधायक हुआ। इसलिए संत निंदा नहीं करता, संत स्वीकार करता है। संत तुम्हारे अंधकार पर जोर नहीं देता, तुम्हारे प्रकाश की संभावना पर जोर देता है। साधु तुम्हारे अंधकार पर जोर देता है। 'उनके निवास-गृहों की निंदा मत करो। उनकी संतति को तिरस्कार मत करो। क्योंकि तुम उनका तिरस्कार नहीं करते, इसलिए तुम खुद भी तिरस्कृत नहीं होओगे।' और संत का कोई तिरस्कार नहीं हो सकता, क्योंकि उसने कभी किसी का तिरस्कार नहीं किया है। यह तुम्हारे भी हित में है। लाओत्से कहता है, संत के भी हित में है। ___ 'संत अपने को जानते हैं, पर दिखाते नहीं।' दिखाने की आकांक्षा अज्ञान से पैदा होती है। जो अपने को नहीं जानता वह दिखाना चाहता है। क्योंकि दिखाने से ही उसे पता चलता है कि मैं कौन हूं, दूसरों के द्वारा ही पता चलता है कि मैं कौन हूं। जो अपने को जानता है उसे दूसरे के सहारे की कोई भी जरूरत नहीं। वह दिखाता नहीं फिरता; वह जानता है वह कौन है। जब तुम दिखाने की आकांक्षा से भरो तो समझ लेना कि तुम्हें पता नहीं है कि तुम कौन हो। तुम दूसरों से पूछ रहे हो कि मैं कौन हूं। - कोई कह देता है, आप बड़े सुंदर! तुम सुंदर हो जाते हो। देखो फिर तुम्हारे पैर की गति, तुम्हारी शान, अकड़ वापस लौट आई। रीढ़ सीधी हो गई। लाख दफे कोशिश की थी आसन लगा कर रीढ़ को सीधा करने की, न होती थी। किसी ने कह दिया, बड़े सुंदर हो! रीढ़ एकदम सीधी हो गई। किसी ने कह दिया, तुम जैसा सच्चरित्र कोई भी नहीं! देखो उस क्षण में हजार-हजार फूल खिलने लगे; तुम बड़े प्रसन्न हो। किसी ने निंदा कर दी और किसी ने कह दिया, तुम और सुंदर? जरा आईने में शक्ल तो देखो! तुम उदास हो गए, भीतर सब मुर्दा हो गया, सब फूल मुर्दा गए। और किसी ने कह दिया कि दुश्चरित्र हो, और किसी ने निंदा कर दी, और तुम वही हो गए। तुम लोगों के मतों पर जीते हो। इसलिए तो तुम लोगों से भयभीत रहते हो कि लोग क्या कह रहे हैं। लोग जो कह रहे हैं वही. तुम्हारी आत्मा है? वही तुम्हारी आइडेंटिटी है? वही तुम्हारी पहचान है? - संत अपने को जानता है, इसलिए दिखाता नहीं। कोई कारण नहीं दिखाने का, संत अपने को जानता ही है। तुमसे पूछने की कोई जरूरत नहीं कि मैं कौन हूं। तुम्हारे मत से नहीं जीता संत; संत अपने भीतर से जीता है। तुम अगर सब भी चले जाओ पृथ्वी से, अकेला संत रह जाए, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा। उसका होना वैसा ही रहेगा। एकांत में या भीड़ में, कोई अंतर नहीं है। बाजार में या हिमालय में, कोई भेद नहीं है। क्योंकि तुम्हारे ऊपर संत निर्भर नहीं है। 'वे अपने को प्रेम करते हैं, पर उछालते नहीं।' यह भी थोड़ा सोच लेने जैसा है। तुम अपने को प्रेम करते ही नहीं, इसीलिए उछालते हो। उछालने का मतलब है, कोई दूसरा तुम्हें प्रेम करे, इसका निमंत्रण। स्त्रियां देखो कितनी मेहनत उठाती रहती हैं आईने के सामने खड़ी-खड़ी! घंटों! हर पति जानता है कि तुम बजाते रहो हार्न बाहर, वह स्त्री कहती है, अभी आई। एक मिनट में आई, स्त्री कहती है। मैंने तो एक स्त्री को यह भी कहते सुना-उनके पति के साथ मैं कार में बैठा हूं, जाने की पति को जल्दी है, वे हार्न बजा रहे हैं-उसने बाहर झांका और कहा, क्यों हार्न बजाए जा रहे हैं? क्यों सिर खा रहे हैं? हजार बार कह चुकी कि अभी एक मिनट में आई। 197
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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