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ताओ उपनिषद भाग ६
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लो कि तुम मंदिर भय के कारण जाते हो तो व्यर्थ ही जाते हो, क्योंकि भय से तो परमात्मा का कोई संबंध नहीं जुड़ता । तुम अगर प्रार्थना भय के कारण करते हो तो जिससे तुम भय के कारण प्रार्थना करते हो उसे तुम प्रेम नहीं कर सकते। भय से कहीं प्रेम उपजा है ? भय से घृणा पैदा हो सकती है, प्रेम नहीं। जिससे तुम भयभीत हो वह दुश्मन मालूम होता है, मित्र नहीं । डर के कारण भला तुम उसकी खुशामद करो। तो तुम्हारी स्तुतियां परमात्मा की खुशामद से ज्यादा नहीं हैं। लेकिन अगर तुम गहरे में झांकोगे तो अपने ही भीतर तुम परमात्मा के प्रति विरोध पाओगे। क्योंकि जो तुम्हें डरा रहा है उसे तुम प्रेम कैसे कर सकते हो !
एक शब्द है, धार्मिक लोगों के लिए उपयोग में आता है : ईश्वर - भीरु, गॉड-फियरिंग। इससे गलत कोई शब्द नहीं हो सकता। धार्मिक आदमी को हम कहते हैं ईश्वर - भीरु, ईश्वर से डरा हुआ ।
धार्मिक आदमी डरा हुआ होता ही नहीं; ईश्वर से तो बिलकुल ही नहीं। ईश्वर से और भयभीत ? तो फिर तुम अभय कहां पाओगे ? फिर तो कोई शरण न रही। अगर ईश्वर भी डराता है तो फिर तो इस जगत में कोई उपाय न रहा कि तुम अभय को उपलब्ध हो जाओ। फिर क्या शैतान की शरण जाकर तुम अभय को उपलब्ध होओगे ? अगर ईश्वर से भी भय है, तब तुम बचोगे कहां? तुम कहां छिपाओगे अपना सिर ?
नहीं, ईश्वर - भीरु शब्द एकांत रूप से गलत है, पूर्ण रूप से गलत है। धार्मिक व्यक्ति भीरु नहीं होता, अधार्मिक व्यक्ति भीरु होता है। हालांकि अधार्मिक व्यक्ति भी प्रार्थना-पूजा करता मिल जाएगा। अक्सर तो यह होगा कि अधार्मिक ही पूजा - प्रार्थना करता मिलेगा, क्योंकि वह भयभीत है। अपने भय को मिटाने के लिए उसे कुछ उपाय करना जरूरी है। वह कंप रहा है, उसे सहारा लेना जरूरी है। धार्मिक व्यक्ति का पूरा जीवन प्रार्थना होता है। वह प्रार्थना करता नहीं; उसका होने का ढंग प्रार्थना है। वह मंदिरों-मस्जिदों में नहीं जाता; वह जहां भी जीता है वहीं मंदिर-मस्जिद बन जाते हैं। उसके होने में छिपा है उसका राज। उसके उठने-बैठने में, उसकी धड़कन धड़कन में, उसकी श्वास- श्वास में प्रार्थना छिपी है। शब्दों से वह कहे, न कहे। और शब्दों से कहने को है क्या ?
परमात्मा से जब तुम शब्दों में बात करने लगते हो तभी तुम चूक जाते हो। क्योंकि परमात्मा की भाषा शब्द नहीं है। परमात्मा की भाषा मौन है। जब तुम कुछ कहते हो तब तुम यह मान ही लेते हो कि परमात्मा को भी तुम्हारे सलाह की, तुम्हारे कहने की जरूरत है। तुम कहोगे तब उसे पता चलेगा ? तुम उसे इतना अज्ञानी मान रहे हो ? अस्तित्व को तुम्हारा पता नहीं है? तुम कहोगे तब, निवेदन करोगे तब और क्या तुम निवेदन करोगे तुम्हारे अज्ञान में? क्या तुम मांगोगे? जो तुम मांगोगे वह जहर होगा। जो भी तुम मांगोगे, मांग कर उलझोगे, मुश्किल में पड़ोगे । क्योंकि मांग उठेगी तुम्हारे अंधकार से मांग उठेगी तुम्हारे अज्ञान से ।
तो प्रार्थना न तो मांग है, प्रार्थना न तो शब्द है, न निवेदन है; प्रार्थना तो हृदय की एक भाव - दशा है। प्रार्थना तो होने की एक शैली है। उसके लिए कोई मंदिर-मस्जिद, कोई तीर्थ आवश्यक नहीं। उसके लिए तो तुम्हें अपने को बदलना होगा। ये तो उन आदमियों की तरकीबें हैं - तीर्थ, मंदिर, मस्जिद — जो अपने को नहीं बदलना चाहते। जो अंतर्यात्रा पर जाने को राजी नहीं हैं वे तीर्थयात्रा पर निकल जाते हैं।
तीर्थयात्रा पलायन है । जाना था भीतर, चल दिए काशी, काबा, कैलाश। इस तरह अपने को भ्रांति हो जाती है कि बड़ा कृत्य कर रहे हैं, धर्मयात्रा हो रही है । जाना था स्वयं में। स्वयं तो यहीं मौजूद था। तीर्थ में पहुंच कर स्वयं का होना ज्यादा नहीं हो जाएगा। इतना ही रहेगा जितना यहां है। और अगर भीतर मुड़ना था तो यहां भी मुड़ सकते थे; कहीं भी मुड़ सकते थे । भीतर के मुड़ने का स्थानों से कोई संबंध, लेन-देन नहीं है। ऐसा नहीं है कि पृथ्वी पर कुछ स्थान हैं जहां भीतर मुड़ना आसान है। मनोदशाएं हैं जहां भीतर मुड़ना आसान है, स्थान नहीं । और मनोदशाएं तुम्हारे हाथ की बात है।