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________________ संत स्वयं को प्रेम करते हैं नहीं सकता। जो है वह मिट कैसे सकता है? रूप बदलते होंगे, वस्त्र बदलते होंगे, घर बदलते होंगे, यात्रा नये आयाम लेती होगी; लेकिन जो है वह सदा है, शाश्वत है। पर यह तो दिखता है आलोक में। जैसे ही यह दिखाई पड़ता है कि मृत्यु नहीं है, भय विसर्जित हो जाता है। और तभी उठती है प्रार्थना। तब उस प्रार्थना में मांग नहीं होती। तब उस प्रार्थना में अनंत धन्यवाद होता है। और तभी जुड़ते हैं हाथ। लेकिन तब किसी तीर्थयात्रा पर जाने की जरूरत नहीं होती। तुम जहां हो, तुम जैसे हो, वहीं चारों तरफ तीर्थ हो जाता है। सारा अस्तित्व तीर्थ हो जाता है; क्योंकि सब तरफ उसी अमृत की धुन बज रही है। जो तुम्हारे भीतर जागा है, आज तुम पाते हो इस जागरण के क्षण में कि सभी जगह वही जागा हुआ है। पत्ते-पत्ते में, पत्थर-पत्थर में वही झांक रहा है। जो अमृत धुन तुम्हारे भीतर बजी है वही धुन सारे लोक-लोकांतर में बज रही है। चांद-तारों में भी उसी की गूंज है। नदी-झरनों में भी उसी का गीत है। पश-पक्षियों में भी उसी के बोल हैं। जिस दिन तुम अपने को पहचान लेते हो, अचानक तुम सारे अस्तित्व को पहचान लेते हो। उस पहचान से भय तो विसर्जित हो जाता है और जन्म होता है प्रेम का। अज्ञान के साथ भय है, ज्ञान के साथ प्रेम है। और दुनिया में दो तरह के आदमी हैं। एक जो भय के आधार से जीते हैं। वे जीते क्या हैं, उनका जीना नाम मात्र को है। और दूसरे जो प्रेम के आधार से जीते हैं। उनका ही जीवन है। भय से तो केवल लोग मरते हैं, बार-बार मरते हैं। कहावत है, कायर हजार बार मरता है। हजार भी कम है। कायर प्रतिपल मरता है, क्योंकि मौत हर घड़ी मालूम पड़ती है। सब तरफ मौत ही दिखाई पड़ती है। कायर मरा हुआ ही जीता है। सिर्फ ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति एक बार मरता है; कायर हजार बार मरता है। ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति एक बार मरता है। वह मरण भी बड़ा अनूठा है। वही मरण तो रूपांतरण है भय से प्रेम में। वही मरण तो रूपांतरण है अंधकार से प्रकाश में। वही मरण क्रांति है। उसी को हम समाधि कहते हैं। पुराना मर जाता है; नये का जन्म होता है। और ऐसे नये का जन्म होता है जो फिर कभी पुराना नहीं पड़ता। क्योंकि जो पुराना पड़ जाए वह नया है ही नहीं; जो आज नया है, कल पुराना पड़ जाएगा। वह आज भी क्या खाक नया था जिसको थोड़ा सा समय पुराना कर देगा? ऐसे नये का जन्म होता है जो सनातन, शाश्वत नया है; जो फिर कभी पुराना नहीं पड़ता। उसी को हम धर्म की भाषा में परमात्मा कहते हैं। . मनुष्य मिट जाता है और परमात्मा का जन्म होता है। तुम जैसे हो वैसे खो जाते हो; तुम जैसे होने चाहिए उसका जन्म होता है। तुम तो बिलकुल विलीन हो जाते हो अंधकार के साथ ही, क्योंकि तुम अंधकार की ही कृति थे। तुम अंधकार में ही बने थे; तुमने अंधकार में ही अपने को सम्हाला था; अंधकार ही तुम्हारी ईंट थी जिससे तुम्हारे जीवन का भवन बना था। मौत के आधार पर तुमने नींव रखी थी। जैसे ही तुम प्रकाश में आते हो वह सब व्यर्थ हो जाता है। तुम्हारी नींव, तुम्हारा भवन, तुम्हारा जीवन, तुम्हारी नीति, तुम्हारा आचरण, सब व्यर्थ हो जाता है। वह अंधकार के साथ ही गिर जाता है। जैसे सुबह जाग कर सपना गिर जाता है, ऐसे ही प्रकाश में उठ कर अंधकार और अंधकार का जीवन गिर जाता है। ये दो प्रकार के मनुष्य हैं। और तुम ठीक से अपने को पहचान लेना कि तुम किस प्रकार के हो। तुम्हारा अहंकार तो कहेगा कि तुम दूसरे प्रकार के हो। और तुम्हारी असलियत को अगर तुम देखोगे तो तुम पाओगे कि तुम पहले प्रकार के हो। और अगर तुमने धोखा दे लिया कि तुम दूसरे प्रकार के हो तो तुम दूसरे प्रकार के कभी भी न हो पाओगे। इसी को लाओत्से ने मानसिक रुग्णता कहा है। जो तुम हो वैसा ही अगर अपने को तुमने जाना तो क्रांति शुरू हो गई। अगर तुम यह भी पहचान लो कि तुम भय से भरे हुए व्यक्ति हो, इतना बोध भी भय के बाहर जाने के लिए पहला कदम हो गया। अगर तुम यह पहचान 185
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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