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________________ मुझसे भी सावधान रहना 141 यह नहीं हो सकता। मैं तुम्हें बताता हूं कि शांति की यह राह है, कि तुम शांत हो जाओ। लेकिन तब द्वंद्व खो जाएगा । द्वंद्व को भी तुम पकड़े रखना चाहते हो। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, महत्वाकांक्षा तो नहीं छूटती, लेकिन शांति की बड़ी आकांक्षा है। अब यह हो कैसे सकता है? लोग मुझसे पूछते हैं कि जो हम कर रहे हैं, जैसा हम कर रहे हैं, क्या वैसे ही करते-करते कुछ घटना नहीं घट सकती? तो फिर घटना घटानी ही क्यों है ? अगर तुम राजी हो तो फिकर छोड़ो। राजी भी नहीं हैं, क्योंकि दुख मिल रहा है। और सुख की आशा बनी है वहीं । एक मित्र हैं बंबई में, और वे बंबई में हमेशा अशांत रहते हैं। तो मैं कश्मीर गया तो वे मेरे साथ कश्मीर गए । पहलगांव में बड़ी शांति थी। दूसरे दिन वे कहने लगे कि यहां तो मन ऊबता है। बंबई में अशांत थे कि यह बंबई जो है पागलपन है; पहलगांव में भी अशांत हो गए, क्योंकि शांति उबाने लगी। अब वे चाहते हैं पहलगांव की शांति बंबई में, या पहलगांव में बंबई का उपद्रव । उस उपद्रव के बिना भी नहीं जी सकते; उस उपद्रव के साथ भी नहीं जी सकते। यह नहीं हो सकता। तुम्हें बदलना पड़ेगा। अगर द्वंद्व दुख दे रहा है तो तुम्हें निर्द्वद्व होना पड़ेगा; तुम्हें तीसरा सूत्र खोजना पड़ेगा जो दोनों के बाहर है। अगर तीसरा सूत्र तुम खोज लो और तीसरे सूत्र में तुम पूरी तरह लीन हो जाओ, तो जरूर असंभव भी घट सकता है। तब एक दिन तुम बाजार में वापस आ सकते हो, और तुम्हारे भीतर पहलगांव की शांति होगी। तुम बीच बंबई में खड़े हो सकते हो, शेयर मार्केट में, लेकिन पहलगांव की शांति तुम्हारे भीतर होगी। तब तुम वहां होओगे भी और नहीं भी होओगे। तब बाहर से तुम वहां होओगे, भीतर से तुम वहां नहीं होओगे। लेकिन यह तो आखिरी घटना है; यह पहले नहीं घट सकती। पहले तो तुम्हें यह तय करना ही होगा कि दुख के ऊपर उठना है तो द्वंद्व को छोड़ना है। दुख के ऊपर उठ कर, द्वंद्व को छोड़ कर एक दिन तुम्हारे भीतर ऐसी गरिमा का उदय होगा, ऐसी गहन शांति जन्मेगी कि फिर तुम लौट आ सकते हो बाजार में। तब तुम्हें कोई बंधन न होगा; तब तुम्हें कोई द्वंद्व न छुएगा, कोई द्वैत न छुएगा। आखिर परमात्मा भी तो द्वंद्व में ही रह रहा है; उसे नहीं छूता । क्योंकि वह द्वंद्व में है और नहीं है। द्वंद्व में ऐसे है जैसे कोई अभिनेता होता है । तुम द्वंद्व में कर्ता की तरह हो, तुम वहां बंट जाते हो। तुम अभिनेता नहीं हो। तुम्हारा धन खो जाता है तो तुम्हारी आंख से अभिनेता के आंसू नहीं बहते, असली आंसू बहते हैं। तुम सच में ही रोते हो। तुम्हारी पत्नी खो जाए तो तुम सच में ही चिल्लाते हो, छाती पीटते हो; वैसा नहीं जैसा रामलीला में राम की सीता खो जाती है। तो वे पूछते हैं वृक्षों से, कहां मेरी सीता ! लेकिन तुम जानते हो कि वे बिलकुल नहीं पूछ रहे, केवल अभिनेता हैं। भीतर कुछ नहीं हो रहा, सब बाहर-बाहर हो रहा है। आंसू भी लाते हैं तो नाटक कंपनियां मिर्च का मसाला रखती हैं। वे जल्दी से, हाथ में मिर्च लगाए रखते हैं, आंख पर मीड़ लेते हैं; आंसू बहने लगते हैं। रामचंद्रजी को भी रामलीला में थोड़ी सी मिर्च आंख में लगानी पड़ती है, तब आंसू आते हैं। अब आंसू कोई तुम्हारी आज्ञा से तो चलते नहीं। और असली आंसू एक बात है; नकली लाना बड़ी मुश्किल बात है। कभी नकली आंसू लाकर देखो, तब पता चलेगा। आज अभ्यास करना बैठ कर कि नकली आंसू किसी तरह आ जाएं। वे बिलकुल न आएंगे। बिलकुल सूख जाएंगी आंखें; पता ही न चलेगा कि आंखों में कोई आंसू भी हैं कहीं। जिस दिन व्यक्ति अपने भीतर की गहन शांति में थिर हो जाता है उस दिन जगत एक अभिनय है। इसलिए हमने इसे लीला कहा है। उस दिन वह सब करता है - वह बाजार जाता, वह दुकान चलाता, वह पत्नी को सम्हालता, बच्चों को सम्हालता - वह सब करता है, और फिर भी अकर्ता बना रहता है। वही सिद्ध की दशा है। लेकिन उसके पहले तुम्हें साधक होने से गुजरना पड़ेगा। तुम्हें द्वंद्व से हटना पड़ेगा।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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