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मुझसे भी सावधान ररुबा
तीसरा प्रश्न : आप कहते हैं कि जो तुम हो उस यथार्थ स्थिति को अनाक्रामक ढंग से, बिना निंदा-स्तुति के देखो। लेकिन मेरी वह स्थिति इतनी भयावह है कि उस ओर आंरव उठाना कठिन हो जाता है। क्या बताने की कृपा करेंगे कि इस भय से पहले कँसे निपटा जाए?
.. कोई स्थिति इतनी भयावह नहीं है कि तुम आंख उठा कर न देख सको। और आंख उठा कर देखो या न देखो, इससे स्थिति तो बदलती नहीं है। वह भयावह है तो है। वस्तुतः उसे भयावह कहना भी व्याख्या है। क्यों कहते हो उसे भयावह ? मन में कामवासना है; क्यों कहते हो भयावह? क्या भय है? देखने में क्या डर है? भीतर नरक ही क्यों न उबल रहा हो, देखने की क्षमता तो जुटानी ही पड़ेगी। क्योंकि वही उसके ऊपर उठने का मार्ग है।
अब तुम पूछते हो कि भय से पहले कैसे निपटा जाए?
बिना देखे तो किसी चीज से निपटा नहीं जा सकता। तुम ऐसी बातें पूछ रहे हो कि बिना पानी में उतरे तैरना कैसे सीखा जाए? पानी में तो उतरना ही पड़ेगा। तैरना सीखना तभी संभव हो पाएगा। मत उतरो बहुत गहरे में, लेकिन पानी में किनारे तो उतरो। गले-गले तक जाओ, लेकिन थोड़ा जाओ तो, हाथ-पैर तड़फड़ाओ। थोड़ा सीखो, उथले में ही सीखो; जब सीख आ जाएगी तो फिर तुम गहरे में भी जा सकोगे। लेकिन अगर तुमने यह तय कर लिया कि हम तो पहले तैरना सीखेंगे फिर पानी में उतरेंगे, तब फिर बड़ी मुश्किल है। फिर कोई उपाय नहीं है।
भय से पहले निपटोगे तुम कैसे? कौन निपटेगा? तुम ही तो भय हो, तुम ही कंप रहे हो, अब निपटेगा कौन? जागो और भय को देखो, ताकि तुम भय से अलग हो जाओ। न जागोगे, न भय को देखोगे, तो अलग न हो सकोगे। जो अलग हो जाता है वही तो निपट सकेगा। और मजा यह है कि जो अलग हो जाता है उसे निपटने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। अलग होना ही सूत्र है। तुम जिस मनोदशा से अलग हो गए वही मिट जाती है। क्योंकि तुम्हारे सहारे के बिना कोई मनोदशा जी नहीं सकती।
कामवासना है। तुम अलग हो गए, तुमने अपने को दूर खड़ा कर लिया और कहा कि मैं साक्षी हूं, देखूगा। बस, प्राण निकल गए कामवासना के। क्योंकि तुम्हारा ही सहारा था। तुमसे ही तो ऊर्जा मिलती थी। तुम्हीं दूर खड़े हो गए। कितनी देर कामवासना चलेगी? कुछ पुरानी ऊर्जा थोड़ी बहुत पास होगी, थोड़ी बहुत देर में समाप्त हो जाएगी। तुम पाओगे, काम-ऊर्जा पड़ी है; जैसे सांप निकल गया और उसकी पुरानी चमड़ी पड़ी रह जाती है, वैसी पड़ी है, उसमें कोई प्राण नहीं है। जैसे कारतूस चला हुआ पड़ा है, उसमें अब कुछ प्राण नहीं है। . प्राण कौन देता है? तुम्हारे भय के भी तुम्हीं तो जन्मदाता हो। बस, दूर होना कला है।
देखना ही पड़ेगा। कितनी ही भयावह स्थिति हो, आंख खोलनी ही पड़ेगी। तुम कहो कि आंख बिना खोले भय मिट जाए; मुश्किल है। क्योंकि आंख बंद करने के कारण ही तो भय है। तुम आंख खोलो, देखो चारों तरफ; भय नहीं है।
और भयभीत तुम्हें कर दिया है धर्मगुरुओं ने। क्योंकि हर चीज की निंदा कर दी है; हर चीज को निंदित कर दिया है। इसलिए भय स्वाभाविक है। तुम जो भी करो वही पाप मालूम पड़ता है। और जब सब तरफ पाप मालूम पड़ता है तो तुम कंपते हो, डरते हो, घबराते हो। नरक निश्चित है। तुम सोच भी नहीं सकते कि तुम स्वर्ग कैसे जाओगे! धर्मगुरुओं ने जो व्यवस्था दी है उसमें तुम्हारा नरक निश्चित है। अगर वह व्यवस्था सच है तो स्वर्ग कोई कभी पहंचा होगा, यह भी संदिग्ध है। सब निंदित है। तो तुम घबरा ही जाओगे।
मैं तुमसे कहता हूं, कुछ निंदित नहीं है। सभी स्वीकृत है। और जिन्हें तम निंदा करके पा रहे हो कि राह के पत्थर हैं, वे पत्थर नहीं हैं, वे राह की सीढ़ियां हैं।
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