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ताओ उपनिषद भाग ५
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इसलिए तुम अपने मंदिर-मस्जिदों में ऐसे अनेक लोगों को बैठे पाओगे, जो ब्रह्मचर्य जिनके लिए आसान है। और उसका कुल कारण इतना है कि वे परम लोभी हैं।
लेकिन लोभ उनका सवाल है। उन्हें जो मध्य साधना है वह लोभ में साधना है, काम में नहीं साधना है।
कामवासना से भरा हुआ आदमी अक्सर लोभी नहीं होता। अक्सर कामवासना से भरे आदमी के लिए कृपणता नहीं पकड़ती। इसलिए अगर तुम उससे कहो लोभ छोड़ने को, वह बिलकुल तैयार है। वह छोड़े ही बैठा है; छोड़ने को कुछ है ही नहीं। वह वैसे ही फेंक रहा है अपने जीवन में जो भी है उसके पास । व्यर्थ फेंकने में वह कुशल है । तुम उसे इधर दो, उधर वह फेंक देगा। इधर पैसे आए, उधर गए। इधर शक्ति आई उधर गई । उसका हाथ खुला हुआ है। उससे अगर तुम कहो, ब्रह्मचर्य साधो, तो बहुत कठिन। अगर तुम कहो, अलोभ साधो, अपरिग्रह साधो, बिलकुल सरल ।
जो आदमी क्रोधी है उससे तुम दया साधने को कहो तो बहुत कठिन; उससे तुम कहो करुणा करो तो बहुत कठिन । लेकिन जो आदमी डरपोक है, भयभीत है, भयातुर है, वह जल्दी ही दया साधने को राजी हो जाएगा।
इसलिए तुम जान कर हैरान होओगे कि महावीर ने अहिंसा का उपदेश दिया, दया का, करुणा का, और सिर्फ बनियों ने उसे पकड़ा। क्या कारण होगा ? क्योंकि बनिया डरपोक है। उसे यह बात जंची। उसे यह बात जंची कि न हम किसी से झगड़ा करेंगे, न कोई हमसे झगड़ा करेगा। उसको दया की बात जंची कि तुम दूसरे पर दया करो, दूसरा तुम पर दया करेगा, झंझट पैदा न होगी । बनिया झगड़ने से डरता है। लड़ाई-झगड़ा खड़ा न हो, इसलिए बनिया क्रोध को साध लेता है । भय को नहीं साध पाता; जरा सी चीज उसे भयभीत करती है।
अब सवाल यह है कि तुम्हें अपना व्यक्तित्व खोजना पड़ेगा कि तुम्हारा व्यक्तित्व कैसा है। और तुम्हारे व्यक्तित्व को खोज कर ही तुम्हें मध्य खोजना पड़ेगा कि तुम्हारे व्यक्तित्व की क्या अतियां हैं, उनके बीच में मज्झिम निकाय क्या है। अगर तुमने अपने व्यक्तित्व को न खोजा और तुम किसी के अनुयायी बन गए...।
समझो कि तुम्हारा मन तो लोभ का है और तुमने पतंजलि का शास्त्र पढ़ लिया कि ब्रह्मचर्य साधों, तुम्हें बिलकुल जंचेगा। तुम साध भी लोगे। लेकिन तुम कहीं न पहुंचोगे; क्योंकि वह तुम्हारी बीमारी न थी । यह तो ऐसे हुआ कि बीमारी कुछ और थी, दवा कुछ और ले ली। माना कि दवा स्वादिष्ट लगी, इससे भी क्या होता है? माना कि दवा तुम्हें रास आई, इससे भी क्या होता है? असली सवाल यह है कि बीमारी क्या है।
ठीक-ठीक निदान व्यक्ति को अपनी बीमारी का कर लेना जरूरी है-बीमारी क्या है ? और बीमारी का निदान करके तुम्हें अपनी अतियां देखनी हैं कि तुम किन अतियों के बीच में भटकते हो। समझो, एक आदमी है; वह या तो ज्यादा खाना खाता है; दो, तीन, चार महीने खूब खाएगा। ऐसे मित्रों को मैं जानता हूं जो तीन-चार महीने बिलकुल खाएंगे कुछ भी; सब भूल जाएंगे नियम व्यवस्था । फिर उनका वजन बढ़ जाएगा। फिर भारी देह हो जाएगी। फिर हृदय पर धड़कन बढ़ने लगेगी। फिर कमर में दर्द होगा। फिर वे उठ न सकेंगे। फिर ये तकलीफें आएंगी। तब तत्क्षण वे दूसरी अति पर चले जाएंगे तब वे उपवास करने लगेंगे। या तो तुम उन्हें ओबेराय होटल में पाओगे और या उरली कांचन में। पूना में वे कभी न रुकेंगे। इसलिए तो मैंने पूना बीच में चुना। मध्य ! तुम उन्हें यहां न पाओगे। वे उनकी अतियां हैं।
और इस व्यक्ति को मध्य खोजना है तो इसे मध्य अपना समझना पड़ेगा – सम्यक आहार! न तो ज्यादा खाना उचित है और न कम खाना उचित है। ज्यादा खाना उतनी ही बड़ी बीमारी है जितना कम खाना। क्योंकि दोनों ही हालत में तुम शरीर को नुकसान पहुंचाते हो। सम्यक आहार! जितना जरूरी है बस उतना । न कंम, न ज्यादा; ठीक बीच में रुक जाना।