________________
ताओ उपनिषद भाग ५
404
की तरह पीछे चल पड़े। अब तुमने किसी और के जीवन को अपने ऊपर ओढ़ लिया। अब तुमने अपनी आत्मा को तो दबाया, और किसी और के होने के ढंग को अपने ऊपर बिठा लिया जबरदस्ती ।
जाए
जबरदस्ती जरूरी है, क्योंकि दूसरे का ढंग दूसरे का ढंग है। तुम्हें पता है, अगर दूसरे का खून भी तुम्हें दिया तो वह भी तुम्हारे टाइप का ही होना चाहिए। नहीं तो शरीर उसे भी फेंक देता है। तुम्हें पता है कि अगर तुम्हारे पैर पर घाव हो जाए और चमड़ी लगानी हो तो तुम्हारे ही हाथ की या शरीर की चमड़ी निकालनी पड़ती है। किसी दूसरे की चमड़ी तुम लगा दो, वह लगेगी नहीं। शरीर उसे इनकार कर देगा। जब शरीर तक इतना चुनाव करता है तो आत्मा का तो कहना ही क्या ! जब शरीर तक पहचान रखता है कि जो अपने जैसा है, जो मेरा ही है, उसी को स्वीकार करूंगा, अंगीकार करूंगा, तो आत्मा की तो अपेक्षा बहुत बड़ी है, आत्यंतिक है।
तुम समझना, सीखना, देखना, स्वाद लेना । उसी स्वाद, समझ और सीखने से तुम्हारी अपनी अंतर्ज्योति जगने लगेगी। उस अंतर्ज्योति के प्रकाश में ही तुम पहुंच सकोगे। दूसरे का प्रकाश न कभी किसी को ले गया है, न ले जा सकता है। वह दूसरे का है। वह कितना ही प्रकाशित मालूम पड़े, उससे अंधकार नहीं मिटेगा । यह बात समझ में आ
तो फिर मैं जो बहुत सी बातें कह रहा हूं वे तुम्हारे सामने साफ हो जाएंगी।
हालांकि तुमने बहुत चाहा होगा कि कोई सुगमता से सूत्र दे दे, बता दे कि यह करो। तुम इतने काहिल, सुस्त, आलसी हो कि तुम जीने के संबंध में भी किसी दूसरे की लीक पर चलना पसंद करोगे। कौन झंझट में पड़े सोचने के ? विचार का उपद्रव कौन ले ? इतना भी बुद्धि को कौन लगाए? कोई बता दे मार्ग, हम चल पड़ें।
तुम यह मत समझना कि यह तुम्हारी श्रद्धा से हो रहा है। नहीं, यह तुम्हारे प्रमाद और आलस्य से हो रहा है। तुम चाहते हो, कोई हमें झंझट से बचा दे - सोचने की, विचारने की, साधना की, ध्यान की। कोई कह दे सीधा-साधा, यह करो, और हम कर लें। जिम्मेवारी छूट जाए।
तुम अंधे होने को उत्सुक हो; क्योंकि आंखें खोलने में पीड़ा होती है, और समझ को बढ़ाने में श्रम लगता है। समझ मुफ्त नहीं मिलती। और सत्य की खोज पूरे जीवन को एक क्रांति से गुजारना है, एक अग्नि से गुजारना है।
तुम चाहोगे दूसरे की बुझी राख में लोटना। तुमने देखे हैं, अनेक भभूत लगाए बैठे हुए हैं सारे मुल्क में। वे सब दूसरों की राख में लोट कर भभूत लगा रहे हैं। दूसरे के द्वारा लिया गया आदर्श बुझी हुई अंगार जैसा है, राख है। कभी वहां अंगार रही होगी; वह जा चुकी है। और जिसके लिए थी उसके लिए थी; तुम्हारे लिए वह अंगार राख है। तुम्हें अपने ही अंगार जलाने होंगे; अपनी ही सजानी पड़ेगी यज्ञशाला; अपने ही जीवन का घृत डालना होगा।
वह मंहगा सौदा लगता है; तुम सस्ते में निबटना चाहते हो। तुम चाहते हो, हमें झंझट न करनी पड़े; कोई सीधा बता दे कि ऐसा करो, ऐसा उठो, ऐसे खाओ, ऐसे पीओ, ऐसे चलो। निबटारा हो जाए; जिम्मेवारी दूसरे की हो जाए। जिम्मेवारी दूसरे पर मत टालना, क्योंकि अंततः तुम्हीं पूछे जाओगे। तुमसे ही पूछा जाएगा; और कोई उत्तरदायी नहीं है। परमात्मा अगर पूछेगा तो तुमसे पूछेगा कि कहां गंवाए जीवन ? कहां खोया सारा अवसर ? तब तुम यह न कह सकोगे कि हम दूसरे जैसे बनने की कोशिश में लगते रहे ।
एक यहूदी फकीर मर रहा था, हिलेल। बहुत अदभुत आदमी हुआ। मरते वक्त, मरने के ठीक एक क्षण पहले उसके शिष्यों ने देखा कि वह मुस्कुरा रहा है। एक शिष्य ने पूछा कि क्यों मुस्कुरा रहे हो ? उसने कहा, इसलिए मुस्कुरा रहा हूं कि आज मुझे समझ में आई बात, अब जब मरने के करीब हूं, सारे जीवन का लेखा-जोखा कर रहा हूं, क्योंकि जल्दी ही जवाब देना होगा, तो अब मुझे समझ में आई बात कि परमात्मा मुझसे यह न पूछेगा कि तुम मूसा जैसे क्यों नहीं हो ? क्योंकि मूसा यहूदियों का परम पुरुष, जैसे महावीर, बुद्ध, कृष्ण, लाओत्से । हिलेल ने कहा, परमात्मा मुझसे यह पूछेगा ही नहीं कि तुम मूसा जैसे क्यों नहीं हो, क्योंकि यह तो वह खुद ही जानता है कि उसने