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हला प्रश्न : महावीर, बुद्ध, लाओत्से, आप, आप सबके मध्य अलग-अलग प्रतीत होते हैं। क्या हम सामान्य जनों के भी मध्य अलग-अलग होंगे? मज्झिम निकाय की इस बात को हमें समझा दें।
एक-एक व्यक्ति अनूठा है, बेजोड़ है; उस जैसा न कभी कोई हआ, न कभी कोई फिर और होगा। इस बात को जितनी गहराई से समझ लें उतना साधना में सहायता मिलेगी। तब नकल का तो कोई उपाय नहीं है। तब दूसरे का अनुसरण करना संभव नहीं है; अनुयायी बनने की सुविधा ही नहीं है। तुम बस तुम जैसे हो, और तुम्हें अपना रास्ता खुद ही खोजना होगा। सहारे मिल सकते हैं, सुझाव
मिल सकते हैं, आदेश नहीं। दूसरे की समझ के प्रकाश से तुम अपनी समझ को जगा सकते हो, लेकिन दूसरे के जीवन को ढांचा मान कर अपने को ढाला कि मुक्ति तो दूर, जीवित भी तुम न रह जाओगे। तब तुम एक मुर्दे की भांति होओगे; एक अनुकृति, जिसकी आत्मा खो गई है।
आत्मा का अर्थ है व्यक्तित्व; आत्मा का अर्थ है तुम्हारा अनूठापन; आत्मा का अर्थ है तुम्हारी अद्वितीयता। इसमें कुछ अहंकार मत समझना। क्योंकि जैसे तुम अद्वितीय हो वैसे ही सभी अद्वितीय हैं। अद्वितीयता सामान्य घटना . है। यह कोई विशेष बात नहीं। यह समझना मत अपने मन में कि मैं बेजोड़ हूं। तुम ही बेजोड़ नहीं हो, सभी बेजोड़
हैं। राह के किनारे पड़ा एक छोटा सा कंकड़ भी बेजोड़ है। वृक्षों में लगे करोड़ों पत्ते हैं; एक-एक पत्ता बेजोड़ है। तुम उस जैसा पत्ता दूसरा न खोज सकोगे।
बेजोड़ता अस्तित्व का ढंग है। यहां सभी कुछ अनूठा है। होना ही चाहिए। क्योंकि यहां पत्ते-पत्ते पर परमात्मा का हस्ताक्षर है। उसका बनाया हुआ बेजोड़ होगा ही। तुम्हें भी वही बनाता। बुद्ध, कृष्ण, लाओत्से को भी वही बनाता। कंकड़-पत्थरों को भी वही बनाता। सभी पर उसी के निशान हैं। और जो उसके हाथ में पड़ गया वह नकल थोड़े ही हो सकता है। जो उस मूल स्रोत से आता है वह उस मूल स्रोत की अद्वितीयता को अपने साथ लाता है। तुम अद्वितीय हो, क्योंकि परमात्मा अद्वितीय है। तुम उससे ही आते हो। तुम उससे भिन्न नहीं हो सकते।
और तुम्हें अगर कुछ होना है तो बस अपने ही जैसा होना है। कोई दूसरा न तो आदर्श है, न कोई दूसरा तुम्हारे लिए नियम है, न तो कोई दूसरा तुम्हारा अनुशासन है। तुम्हारा बोध, तुम्हारी समझ, तुम्हारे अपने जीवन की भीतर की ज्योति को ही बढ़ाना है। सहारा लो, साथ लो; जो पहुंच गए हैं उनसे स्वाद लो; जो पहुंच गए हैं उनको गौर से देखो, पहचानो; पर नकल मत करो, अनुसरण मत करो।
अनुयायी भूल कर मत बनना। अनुयायियों से ही तो संप्रदाय निर्मित हो गए हैं। अगर तुम अनुयायी न बने तो ही तुम धार्मिक हो सकोगे। अनुयायी बनने का अर्थ यह है कि तुमने समझ को तो ताक पर रख दिया, अब तुम अंधे
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