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वे वही सीखते हैं जो अनसीनचा है
लेकिन बहुत से लोग खोकर ही मर जाते हैं—बिना पुनः पाए। बच्चे की तरह पैदा होओ, संत की तरह मरो। तुम्हारा जीवन-वर्तुल पूरा हो गया। बच्चे की तरह पैदा होओ, संत की तरह मरो। इसका अर्थ हुआ कि बच्चे में जो निर्दोषता थी अज्ञान में, उसे तुम ज्ञानपूर्वक, अनुभवपूर्वक, जीवन की सारी स्थितियों से गुजर कर, प्रौढ़ता को पाकर पुनः उपलब्ध कर लो, फिर से तुम बच्चे हो जाओ।
और जब कभी कोई बूढ़ा पुनः बच्चे की तरह निर्दोष हो जाता है तब उसके सौंदर्य का क्या कहना? तब उससे परमात्मा इस जगत में उतरता हुआ मालूम होता है। तब उसकी हवा में भनक आ जाती है परलोक की। तब उसके चारों तरफ एक वातावरण निर्मित हो जाता है अलौकिक। वह अपने साथ तरंगों का एक जाल लेकर चलने लगता है। वे किसी दूसरे ही लोक की खबर देते हैं, वे होने के किसी नए ढंग की खबर देते हैं। वह ढंग अनसीखा, वह ढंग स्वभाव का।
'यह कि प्रकृति के क्रम में वे सहायक तो होते हैं, लेकिन उसमें हस्तक्षेप करने की धृष्टता नहीं करते।'
संत सहायक होते हैं प्रकृति के क्रम में। तुम जो होना चाहते हो, तुम जहां जाना चाहते हो, तुम्हारी नियति तुम्हें जहां खींचे लिए जाती है, संत उसमें साथ देते हैं, सहारा देते हैं, सहयोग देते हैं। वे तुम्हारे होने में सहयोग देते हैं। वे अपनी कोई आकांक्षा तुम पर आरोपित नहीं करते कि तुम ऐसे हो जाओ।
___ यहीं फर्क समझ लेना। साधु वही है जो चेष्टा करेगा कि तुम मेरी प्रतिकृति हो जाओ, तुम मेरी कार्बन कापी बन जाओ। जैसा मैं हूं वही तुम्हारे जीवन का आदर्श हो। जो मैं खाऊं वही तुम खाओ; जब मैं उठू तभी तुम उठो; जब मैं सोऊं तभी तुम सोओ। मेरा जीवन ही तुम्हारा ब्लू-प्रिंट हो। अब तुमको इसी के अनुसार अपने को ढाल लेना है।
इससे बड़ी कोई हिंसा इस संसार में नहीं है। दूसरे व्यक्ति को अपने अनुसार ढालने की कोशिश सबसे बड़ी हिंसा है। तुम कौन हो? दूसरा स्वयं होने को पैदा हुआ है। उसकी अपनी नियति है। उसकी अपनी यात्रा का पथ है। जन्मों-जन्मों से वह अपने को ही खोज रहा है। तुम कौन हो बीच में अपने आपको उसके ऊपर थोप देने को आतुर?
यह आतुरता आती है, क्योंकि बड़ा रस आता है अहंकार को जब वह देखता है कि मेरे ही जैसे कई लोग पूंछ कटाए खड़े हैं, ठीक मेरी प्रतिकृतियां। इसलिए गुरु जीता है अनुयायियों की भीड़ पर। जितने ज्यादा अनुयायी उतना गुरु को लगता है वह महत्वपूर्ण है। जरूर उसमें कुछ होना चाहिए, तभी तो इतने लोग उस जैसे होने की कोशिश कर रहे हैं। वह जो करता है, वह जो कहता है, वही शाश्वत नियम है।
नहीं, यह संतत्व का लक्षण नहीं। संतत्व का लक्षण है : तुम ही तुम्हारे शाश्वत नियम हो। वह तुम्हें सहयोग दे सकता है, लेकिन तुम्हें ढांचा न देगा। वह तुम्हें आदर्श न देगा; वह तुम्हें प्रेम देगा, मैत्री देगा। वह तुम्हें अनुशासन न देगा; वह तुम्हें बांधेगा नहीं किसी डिसिप्लिन में, किसी अनुशासन में। वह तुम्हें मुक्त करेगा।
सहारा एक बात है। एक हम वृक्ष लगाते हैं नीम का, एक वृक्ष हम लगाते हैं आम का। सहारा हम देंगे। नीम कड़वी होगी; वह उसके होने की नियति है। उसके कड़वेपन का अपना राज है। उसके कड़वेपन की अपनी खूबी है। वह हवा को शुद्ध करेगी। नीम से ज्यादा शुद्ध कोई वनस्पति नहीं है। उसकी मौजूदगी शुद्ध करती है। उसकी कड़वाहट में भी बड़ी गहरी मिठास है। लेकिन संत नीम को आम बनाने की कोशिश नहीं करेगा। वह साधु की कोशिश है। आम अपने आम होने में रसपूर्ण है। उसका अपना माधुर्य है। नीम का अपना व्यक्तित्व है।
संत दोनों को, वे जो होना चाहते हैं, जो हो सकते हैं, जो उनके भीतर छिपा है, उसे प्रकट करेगा, सहयोग देगा, ताकि उनका बीज टूटे, अंकुरित हो, वृक्ष बने। लेकिन जो भी फूल उनके हों वही आएं, अंततः वे अपनी मंजिल पर पहुंच जाएं, उनके व्यक्तित्व में कोई बाधा न पड़े। वह व्यर्थ को हटा देगा, सार्थक को सहयोग देगा; लेकिन अपने ढांचे में किसी को भी ढालेगा नहीं।
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