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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ 398 से उनका कोई लेना-देना नहीं; दूसरों की सिखाई हुई है। अच्छे-बुरे से उनका कोई लेना-देना नहीं; दूसरों के सिखाए हुए हैं। वे तो उसी को सीखने की कोशिश करते हैं जिसे वे लेकर आए थे, जो परमात्मा का दिया हुआ है, जो प्रकृि का दान है, जो उनका होना है, बीइंग है। वह सब हटा देते हैं जो-जो सिखाया गया है। वह सब कचरा है। वह सब कंडीशनिंग है, वह संस्कार है। उन संस्कार से संस्कृति पैदा होती है। वह बासा है, उधार है; दूसरों की आज्ञाओं का पालन है। वह दूसरों के द्वारा चलाए जाना है। नहीं, वे अपने स्वभाव में जीना चाहते हैं; स्वभाव को पहचानते हैं और उसी में डूब रहते हैं । उसी स्वभाव में वे उठते हैं, बैठते हैं। उसी स्वभाव में वे चलते हैं, उसी स्वभाव में बोलते हैं, मौन होते हैं। लेकिन एक चीज से वे जुड़े रहते हैं— जो उनके भीतर अनसीखा है, अनलर्ड, जिसको किसी ने उन्हें सिखाया नहीं । सिखाए से बचना। वही तुम्हारा ज्ञान बन गया है। असली ज्ञान अनसिखाए में छिपा है। और जिस दिन उस अनसिखाए का उदभव होता है उस दिन तुम सरलतम हो जाते हो। तुम फिर से पुनः एक बालक की भांति हो जाते हो । 'और वे उसे ही पुनः स्थापित करते हैं जिसे समुदाय ने खो दिया है।' समाज के हिस्से होकर ही तो तुम भटक गए हो। भीड़ के साथ तुम एक हो गए हो। लोग जो कहते हैं वह तुम . करते हो। लोग जो बताते हैं वह तुम मानते हो । लोग जो समझाते हैं वही तुम्हारी समझ है। तुमने अपना चेहरा खो दिया है। तुमने अपना स्वभाव, स्वरूप खो दिया है। तुम समाज की भीड़ में दब गए हो। जो समुदाय ने खो दिया है उसे पाने की चेष्टा ही धर्म है। इसलिए धर्म कोई सामाजिक घटना नहीं है। लोग धर्म को भी सामाजिक घटना बना लिए हैं। लोग चर्च जाते हैं रविवार को, क्योंकि सामाजिकं बात है। न जाएं तो समाज में चर्चा होती है। एक औपचारिकता है, निभाना है; चले जाते हैं। लोग मंदिर चले जाते हैं, पूजा कर लेते हैं; क्योंकि समाज को ध्यान में रखना है। धर्म भी समाज से जोड़ कर रखा है तुमने? तो तुम्हारा धर्म भी झूठा है। इसलिए तुम्हारा धर्म जैन है, हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, बौद्ध है। यह सब झूठ है। वास्तविक धर्म का कोई नाम नहीं है। और वास्तविक धर्म एक ही है, वह है अपने स्वभाव में जीना। धर्म का अर्थ ही स्वभाव है। इसलिए धर्म संस्कृति का अतिक्रमण कर जाता है। वह पार है। 'वे उसे ही पुनः स्थापित करते हैं जिसे समुदाय ने खो दिया है।' वे अपने बालपन को पुनः पाने की कोशिश करते हैं जिसे समाज ने छिपा दिया है, ढांक दिया है। वे फिर से निर्दोष बच्चे की भांति होने के प्रयास में संलग्न हो जाते हैं। एक बच्चे को देखो। अभी उसके लिए कोई आदर्श नहीं है। अभी वह हंसता है तो हंसता है, रोता है तो रोता है । न रोने में उसे कोई बुराई दिखती है, न हंसने में कोई भलाई दिखती है । प्रेमपूर्ण हो तो बड़ा सदय हो जाता है, क्रोध से भरा हो तो बड़ा निर्दय हो जाता है। अभी उसे कोई नीति नहीं, अभी कोई नियम नहीं। अभी समाज प्रविष्ट नहीं हुआ। अभी वह स्वभाव में है। इसलिए तो सारे बच्चे प्यारे और सुंदर होते हैं। स्वभाव का सौंदर्य अनुपम है। लेकिन बच्चे भी फीके हैं एक संत के सामने। क्योंकि बच्चों का स्वभाव टूटेगा। संस्कृति आएगी, समाज हावी होगा। बच्चे अज्ञान में निर्दोष हैं। उनका अज्ञान ज्यादा देर न टिकेगा। ज्ञान चारों तरफ से भेजा जा रहा है। और उसकी भी जरूरत है। नहीं तो बच्चा कभी समाज का अंग न हो सकेगा। बच्चा फिर कुछ सीख ही न सकेगा। फिर के अनुभव से वंचित रह जाएगा, जो कि जरूरी है। अपने को खोना जरूरी है, ताकि तुम जब पुनः अपने को पाओ तब तुम समझ पाओ कि अपने होने में क्या राज है । खोए बिना पता नहीं चलता। अगर तुम सदा ही स्वस्थ रहो, बीमार न हो, तुम्हें स्वास्थ्य का पता ही न चलेगा कि स्वास्थ्य क्या है। बीमार हो जाओ तब पहली दफा पता चलता है स्वास्थ्य की गरिमा, अहोभाव । खोना जरूरी है पाने के लिए। वह पाने की प्रक्रिया है। समाज
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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