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वे वही सीखते हैं जो अनसीनवा है
जरूरत पड़े तो लौट आना। लेकिन जहां जा रहे हो, जाओ। क्योंकि दूसरे की नियति में जरा भी अड़चन डालनी पाप है। दूसरे के अपने यात्रा-पथ में जबरदस्ती करनी उपद्रव है। और जो भी जबरदस्ती करते हैं वे इसीलिए करते हैं कि वे खुद अपने साथ जबरदस्ती कर रहे हैं, और वही वे दूसरों के साथ करना चाहेंगे।
इसे तुम नियम समझ लो कि जिस आदमी ने अपने साथ जबरदस्ती की है वह दूसरों के साथ जबरदस्ती करेगा। क्योंकि हम जो अपने साथ करते हैं वही हम दूसरों के साथ करते हैं। और जिस आदमी ने अपने साथ कोई जबरदस्ती नहीं की, जिसने स्वाभाविक रूप से, सरलता से सत्य की प्रतीति की है, जो सहज समाधि को उपलब्ध हुआ है, वह किसी के साथ जबरदस्ती नहीं करता। और असहज कहीं कोई समाधि होती है? सहज ही समाधि है।
संत तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं करता। यह बड़ा कठिन है हमें समझना। क्योंकि संत की हमारी धारणा यही है कि वह हमें सुधारता है। उसके पास जाओ तो वह सुधारेगा। जब सुधरना हो तो उसके पास जाओ। वह जैसे कोई चिकित्सक है, जब तुम बीमार हुए तब जाओ; वह तुम्हारा इलाज करेगा।
नहीं, संत का होना सिर्फ एक ही अर्थ रखता है और वह अर्थ यह है कि जैसा सरल वह हो गया है वैसा ही सरल होने की तुम्हें भी वह सुविधा जुटा दे। सरलता का अर्थ है: कर्म नहीं, साक्षी कर्ता नहीं, द्रष्टा।
___'मनुष्य के कारबार अक्सर पूरे होने के करीब आकर बिगड़ते हैं। आरंभ की तरह ही अंत में भी सचेत रहने से असफलता से बचा जा सकता है।'
इसलिए संत सिर्फ एक ही सूत्र देते हैं, एक दीया देते हैं, कि तुम सचेत रहो; तुम जहां भी जाओ, तुम जो भी करो, सचेत रहो। बुरा करने का मन है, करो। क्योंकि तुम कर क्या सकते हो अब? इस मन को दबाओगे तो बुराई इकट्ठी होगी; आज नहीं कल फूटेगी। तुम करो। लेकिन सचेत होकर करो। और बड़ी अदभुत कीमिया है सचेत होने की। क्योंकि जैसे ही तुम सचेत होते हो, बुराई अपने आप कम होती जाती है। सचेत रह कर कभी कोई बुरा कर सका है? सब बुराई बेहोशी में होती है। सब बुराई एक तरह का पागलपन है। सब बुराई तुम जब होश खो देते हो तभी संभव है।
इसलिए एक ही सदगुण संत देते हैं कि तुम जागे रहो; तुम होशपूर्वक करो, तुम जो भी करो। कामवासना में जाओ तो होशपूर्वक जाओ; उसे भी ध्यान बनाओ। जल्दी ही तुम उसके पार हो जाओगे। और वह पार होना अलग होगा। वह दमन न होगा, वह अनुभव से पार होना होगा। वह अतिक्रमण अदभुत है। उस अतिक्रमण में कोई दंश न होगा। वह अतिक्रमण ऐसा ही सहज है जैसे फूल लगते हैं। कोई लगाता थोड़े ही है! जैसे घास बढ़ती है अपने आप। झेन फकीर कहते हैं, दि ग्रास ग्रोज बाई इटसेल्फ। कुछ करना थोड़े ही होता है, घास अपने से बढ़ती है। ऐसे ही ब्रह्मचर्य अपने से बढ़ता है, होश हो तो करुणा अपने से बढ़ती है, होश हो तो अहिंसा अपने आप आती है। कोई व्रत-नियम थोड़े ही लेने पड़ते हैं, कोई ठोंक-पीट कर थोड़े ही अहिंसक हो सकता है। कोई जबरदस्ती अपने को दबा-दबा कर कभी प्रेम से भरा है! घृणा से भला भर जाए, प्रेम से भरने का यह रास्ता नहीं।
संत तो एक ही बात कहते हैं, 'कामनारहित होने की कामना करते हैं।'
ये भी सब कामनाएं हैं कि मैं क्रोध से मुक्त हो जाऊं, कि मैं मोक्ष पा लूं, कि ब्रह्मचर्य मेरे जीवन में फलित हो जाए। ये भी सब कामनाएं हैं; ये भी सब वासनाएं हैं; ये भी सब इच्छाएं हैं। संत तो एक ही कामना करते हैं-कामनारहित होने की। और कामनारहित होना होश की छाया से फलित होता है। क्योंकि जितना-जितना तुम होशपूर्वक कामना में उतरते हो उतना ही उतना तुम पाते हो, कैसा पागलपन ! यह तुम क्या कर रहे हो! करने योग्य ही नहीं मालूम होता। भीतर से रस ही खो जाता है। भीतर से दौड़ नहीं उठती; वासना के बीज दग्ध हो जाते हैं। होश की अग्नि में वासना के बीज दग्ध हो जाते हैं।
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