________________
ताओ उपनिषद भाग ५
तो तुम इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझ लेते हो कि कर्तापन मेरे हाथ में नहीं है। और यही परम धर्म है : जिसको समझ में आ गया कि कर्तापन मेरे हाथ में नहीं है। इसी परम धर्म को लाने के लिए कई प्रयोग किए गए हैं। भाग्य का सिद्धांत सिर्फ एक प्रयोग है इसी को लाने के लिए कि सब भाग्य से हो रहा है।
कृष्ण ने अर्जुन से यही गीता में कहा कि तू सब कर्म परमात्मा पर छोड़ दे, वह जो करवाए तू कर, तू अपने को बीच में मत ला। कृष्ण की पूरी शिक्षा यही है कि तू मूसलचंद मत बन। उसने मार रखा है इन लोगों को पहले से ही जो आज इस युद्ध में आकर खड़े हुए हैं। इनकी मरने की घड़ी आ गई। उसका खेल, तू बीच में मत आ। तू ज्यादा से ज्यादा निमित्त है। वह तेरे कंधे पर रख कर धनुष को चला रहा है; उसको चलाने दे। कंधा भी तेरा कहां है? वह भी उसी का बनाया हुआ है। और तू भी तेरा कहां है? वह भी उसी का है। इस तरफ जो खड़े हैं युद्ध के मैदान में, वे भी उसी के हैं; उस तरफ जो खड़े हैं वे भी उसी के हैं। कथा भी उसी की लिखी है; खेल भी उसी का है; मंच भी उसी का है; नाटक, नाटक के पात्र सब उसी के हैं। और उसने ही इस तरफ एक तरह की शक्लें बना रखी हैं, और उस तरफ दूसरी तरह की शक्लें बना रखी हैं। तू बीच में मत आ।
सारे जगत के धर्म का सार यह है कि तुम्हें एक बात समझ में आ जाए कि तुम्हारे किए कुछ नहीं होता। और फिर सब होना शुरू हो जाता है। और फिर जो कुछ भी होता है वही तृप्ति देता है। क्योंकि जब मेरे करने का कोई सवाल नहीं तो कैसा विषाद, कैसी हार, कैसी सफलता, कैसी असफलता? जब वही कर रहा है तो वही हारे, वही सफल हो, वही असफल हो। वह जाने, हिसाब-किताब वह रखे। अगर सभी धागे उसी के हैं और हम उसके धागों में लटकी कठपुतलियों की भांति हैं, तो फिर क्या प्रयोजन है? भूल-चूक उसकी, प्रशंसा-निंदा उसकी। हम अपने को बिलकुल अलग ही कर लेते हैं। और जैसे-जैसे यह समझ गहन होती है वैसे-वैसे अहंकार छोटा होता जाता है। जिस दिन यह बात पूरी दिखाई पड़ जाती है कि अपना कुछ भी नहीं, हम भी अपने नहीं हैं, उसी दिन अहंकार विसर्जित हो जाता है।
और बिना अहंकार के न काम हो सकता है, न क्रोध हो सकता है। बिना अहंकार के न लोभ हो सकता है, न मोह हो सकता है। बिना अहंकार के न गृहस्थी है, न साधुता है। बिना अहंकार के न बुरा है, न भला है। विभाजन का मूल आधार ही टूट गया। और तब, तब तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं बचा। तब तुम साक्षी ही रह गए। और यह साक्षी होना ही परम मंजिल है। कर्ता होना भ्रांति है; साक्षी होना ज्ञान है। बाहर या भीतर, समाज में या व्यक्ति में, दूसरे में या अपने में, तुम ज्यादा से ज्यादा साक्षी हो।।
तुम्हारी पत्नी क्रोध करती है; क्या कर सकते हो? कुछ मत करो। किया कि उपद्रव बढ़ेगा। करने से और आग में घी पड़ेगा। तुम कुछ मत करो। तुम कर ही क्या सकते हो? इस पत्नी को तुमने बनाया नहीं। जिसने बनाया है वह जाने। यह पत्नी तुम्हारे हाथ में कोई वस्तु तो नहीं है कि तुम उसे रंग-रोगन दे दो, बदल दो। इसकी अपनी जीवन-यात्रा है। और क्षण भर का खेल है कि रास्ते पर तुम दोनों मिल गए हो, कि किसी पुरोहित ने एक नाटक रचा दिया और सात चक्कर लगवा दिए हैं। राह पर मिल गए थे; राह पर थोड़ी देर साथ हो; अलग हो जाओगे। दोस्ती क्षण भर की है। साथ चलना क्षण भर का है। उसकी अपनी यात्रा है। तुम्हारी अपनी यात्रा है। अगर वह क्रोधित होती है तो वह जाने। तुम क्या कर सकते हो? तुम सिर्फ साक्षी हो सकते हो।
तुम चेष्टा मत करना उसको सुधारने की। क्योंकि मैं देखता हूं, हजारों गृहस्थियां इसलिए बरबाद हो गई हैं—हो रही हैं कि या तो पत्नी पति को सुधार रही है या पति पत्नी को सुधार रहा है। और इस सुधारने के धंधे में पत्नियां बहुत ही कुशल हैं; पतियों को सुधारने में लगी हैं। तुम न तो दूसरे को सुधारने की चेष्टा करना। क्योंकि कौन किसको सुधार पाया है? बाप भी बेटे को नहीं सुधार सकता। छोटा सा बेटा, अभी कोई भी ताकत नहीं है। लेकिन उसको भी कोई सुधार नहीं सकता। सुधारा कि तुम बिगाड़ोगे।
386