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________________ वे वही सीनवते हैं जो अनसीनचा है पहले तो मुश्किल ही है; क्योंकि जब बार-बार तुम बीज निकाल कर देखोगे, अंकुर निकलेगा कैसे? कुछ तो मौका दो उसको अपने आप होने का! वह तुम मौका ही नहीं दे रहे। और बच्चा तो जल्दबाजी में होता है। सभी जल्दबाजी में जो हैं, बच्चे हैं, बचकाने हैं। अगर किसी तरह अंकुर निकल आया, बच्चा भूल-चूक गया, कहीं छुट्टी पर चला गया, कुछ हो गया और किसी तरह अंकुर निकल आया, बच्चे के बावजूद, बच्चा रहता तब तो निकलना मुश्किल ही था, तो अब बच्चा जल्दी में है, उसको वह खींच कर बड़ा करना चाहता है कि जल्दी से खींच कर बड़ा कर दे, जैसे कोई पौधे में स्प्रिंग लगा हो कि तुम उसे खींच लो, वह बड़ा हो जाए। या जैसे कि पौधा कोई इलास्टिक का धागा हो कि तुम खींच लो और बड़ा हो जाए। बच्चा खींचतान में उसको तोड़ डालेगा; रोएगा, चिल्लाएगा, कि मैं कुछ बुरा तो कर नहीं रहा था इसको, सिर्फ बड़ा करने की कोशिश कर रहा था कि जल्दी हो जाए, फूल लग जाएं। पौधा अपने से बढ़ता है; नदियां अपने से बहती हैं, तुम्हें कोई धक्का देने की जरूरत थोड़े ही है। बच्चे अपने से बड़े होते हैं, तुम्हें बड़े करने की जरूरत थोड़े ही है। जीवन अपने से चलता है। तुम नहीं थे, तब भी चल रहा था; तुम नहीं रहोगे, तब भी चलता रहेगा। क्रांतिकारी मुफ्त ही बीच में शोरगुल मचा कर यह एहसास कर लेता है अपने भीतर कि मेरे बिना सारी दुनिया नरक में चली जाएगी। कोई कहीं नहीं जा रहा है। क्रांतिकारी आते हैं और चले जाते हैं, संसार अपने ढंग से चलता रहता है। बुराई को कोई कभी मिटा नहीं पाया; क्योंकि बुराई भलाई का अनुषांगिक अंग है। रावण को कोई कभी मिटा नहीं पाया; क्योंकि रामलीला ही मिट जाए। वह रावण के साथ चलती है। ज्ञानी देखता है इस सत्य को कि चीजें अपने से होती हैं। कबीर ने कहा, अनकिए सब होय। तुम करने की व्यर्थ झंझावात में मत पड़ जाना। और जो सत्य है बाहर के संबंध में वही सत्य भीतर के संबंध में भी है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कामवासना को कैसे विजय करें? क्या करें? ब्रह्मचर्य को कैसे लाएं? मैं उनसे पूछता हूं, कामवासना को तुम लाए थे? हम तो नहीं लाए। जिसको तुम नहीं लाए उसको तुम मिटा कैसे सकोगे? जिसने आते वक्त तुम्हारी आज्ञा नहीं मांगी, जिसका प्रारंभ तुम्हारे हाथ में नहीं है, उसका अंत तुम्हारे हाथ में कैसे हो सकेगा? कहां से कामवासना आई है? वे कहते हैं, हमें कुछ पता नहीं। किसने तुम्हें दी है? वे कहते हैं, आप भी कैसी बातें पूछते हैं? है। प्रकृति से आई है। प्रकृति ही वापस लेगी। जहां से चीजें आती हैं, वहीं वापस जाती हैं। जिसके किए आती हैं, उसके किए वापस लौट जाती हैं। तुम क्यों बीच में व्यर्थ ही अपने को खड़ा कर लेते हो? क्रोध मिटाना है, लोग पूछते हैं। तुम लाए थे? कब खरीद लाए? खरीदा होता, वापस भी कर देते; बनाया होता, मिटा देते; तुम्हारे हाथ से हुआ होता, तुम्हारे हाथ से अनहुआ हो जाता। तुम सीधी सी बात क्यों नहीं देखते? तुम क्यों व्यर्थ ही दाल-भात में मूसलचंद...? चीजें सीधी चल रही हैं; तुम उसमें बीच में क्यों आते हो? क्रोध है। किसी के हटाए कभी नहीं हटा। और जब मैं यह तुमसे कहता हूं तो तुम निराश मत हो जाना। कोई कभी क्रोध को नहीं हटा पाया; कोई कभी कामवासना को नहीं हटा पाया। लेकिन जिस दिन तुम यह स्वीकार कर लेते हो और मूसलचंद होना बंद कर देते हो, अचानक तुम पाते हो कि बहुत सी चीजें हटनी शुरू हो गईं। प्रकृति सब अपने से ही करती रहती है। जिस दिन तुम इतने शांत हो जाते हो और यह समझ लेते हो कि मेरा होना, मेरा करना किसी भी मूल्य का नहीं है, उसी दिन तुम्हारा अहंकार मिट जाता है। उसी दिन तुम कहां रहे जिस दिन तुमने इस सत्य को समझ लिया कि सब हो रहा है, मेरा कुछ करने का सवाल ही नहीं है; मैं खुद भी अपने को नहीं बनाया हूं। अचानक तुमने पाया है कि तुम हो। जन्म हुआ। अचानक एक दिन पाओगे कि विदा हो गए। अचानक एक दिन पाओगे कि सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बंजारा। न तो आते वक्त तुमसे कोई पूछता, न जाते वक्त तुमसे कोई पूछता। 385
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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