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________________ 379 ५५ नंत की यात्रा में जैसे प्रारंभ में अंत छिपा है, वैसे ही अंत में प्रारंभ भी छिपा है । अगर कोई सम्हल कर कदम उठाए तो पहले ही कदम में मंजिल पास आ जाती है। और अगर कोई जरा सी चूक कर दे, बेहोश हो जाए, तो आखिरी कदम में भी मंजिल चूक जाती है। सवाल होश का है। होश से उठाया पहला कदम आखिरी कदम सिद्ध होता है। लेकिन जरा सी बेहोशी की छाया, और तुम फिर वहीं के वहीं आ जाते हो जहां से यात्रा शुरू हुई थी। बच्चों का छोटा सा खेल तुमने देखा होगा ः सांप और सीढ़ी। हर कदम पर सांप है, हर कदम पर सीढ़ी है। सीढ़ी पर पड़ गया पैर तो ऊपर चढ़ जाते हो। सांप पर पड़ गया पैर तो नीचे उतर आते हो। सांप और सीढ़ी का खेल पूरे जीवन का खेल है। आखिरी मंजिल से भी गिर सकते हो । आखिरी कदम से भी वापस वहीं आ सकते हो जहां से शुरू किया था । और पहले कदम से भी पहुंच सकते हो। इसलिए जितनी सावधानी पहले कदम पर जरूरी है उससे भी ज्यादा सावधानी आखिरी कदम पर जरूरी है। क्योंकि पहले कदम पर तो कुछ भी खोने को नहीं है, इसलिए थोड़ी सावधानी से भी चल जाएगा। पहले कदम पर तो पाने ही पाने को है, खोने को कुछ भी नहीं है। अगर बेहोश भी रहे तो कुछ खोओगे न, क्योंकि तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं । कदम पहला है। अभी मंजिल शुरू ही नहीं हुई है। अभी यात्रा का प्रारंभ भी नहीं हुआ। तुम हारे ही हुए हो । लेकिन आखिरी कदम पर तो बहुत होश चाहिए, प्रगाढ़ होश चाहिए। क्योंकि जरा सी चूक, और सब खो जाएगा। जो बिलकुल मिला ही मिला हुआ था, पहुंचने के ही करीब थे, जो हाथ के पास ही आ गया था, जिस पर मुट्ठी बंध ही जाती क्षण भर में, वह चूक जा सकता है। जैसे खतरे पहले कदम के हैं वैसे ही खतरे और उससे भी बड़े खतरे - आखिरी कदम के हैं। कल मैंने तुमसे पहले कदम के खतरों की बात कही। पहला खतरा तो यह है कि तुम टालते हो : कल उठाएंगे, परसों उठाएंगे। स्थगित करते हो । पोस्टपोनमेंट पहले कदम का बड़े से बड़ा खतरा है। आशा भर करते हो, उठाएंगे। धीरे-धीरे आशा करना भी एक आदत हो जाती है। फिर तुम रोज ही टालते जाते हो। टालना तुम्हारा ढंग हो जाता है। फिर पहला कदम कभी नहीं उठता। और जिसका पहला ही नहीं उठा उसके अंतिम उठने का तो सवाल नहीं है। दूसरा खतरा है पहले कदम का कि जब तुम उठाते भी हो कदम तब तुम संघर्ष में उतर जाते हो। तुम यात्रा में बहते नहीं, तैरने लगते हो। तुम एक तरह की लड़ाई शुरू कर देते हो। जैसे कोई दुश्मनी है, जैसे प्रकृति मित्र नहीं, शत्रु है। तब तुम एक-एक चीज से लड़ने लगते हो। पहले स्थगित करके रुके थे, अब लड़ाई के कारण रुक जाते हो । लड़ाई से कोई कभी पहुंचा नहीं। कोई है ही नहीं जिससे लड़ो। अपना ही आपा है, अपना ही विस्तार है। लड़ना किससे है? लड़ने योग्य कोई दूसरा मौजूद होता तो ठीक था। तो जब भी तुम लड़ोगे, एकांत में अपनी ही
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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