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Chapter 64 : Part 2
BEGINNING AND END
He who acts, spoils; He who grasps, lets slip. Because the Sage does not act, he does not spoil, Because he does not grasp, he does not let slip. The affairs of men are often spoiled within an ace of completion, By being careful at the end as at the beginning Failure is averted. Therefore the Sage desires to have no desire, And values not objects difficult to obtain. Learns that which is unlearned, And restores what the multitude have lost. That he may assist in the course of Nature, And not presume to interfere.
अध्याय 64 : वंड 2 आरंभ और अंत
जो कर्म करता है, वह बिगाड़ देता है, जो पकड़ता है, उसकी पकड़ से चीज फिसल जाती हैं। क्योंकि संत कर्म नहीं करते, इसलिए वे बिगाड़ते भी नहीं है, क्योंकि वे पकड़ते नहीं है, इसलिए वे छूटने भी नहीं देते। मनुष्य के कारबार अक्सर पूरे ठोने के करीब आकर बिगड़ते हैं। आरंभ की तरह ही अंत में भी सचेत रहने से, असफलता से बचा जाता है। इसलिए संत कामनारहित होने की कामना करते हैं।
और कठिनता से प्राप्त होने वाली चीजों को मूल्य नहीं देते। वे वठी मीरखते हैं जो अनसीरवा ठो, और उसे वे पुनः स्थापित करते हैं, जिसे समुदाय ने वो दिया है। यह कि प्रकृति के क्रम में वे सहायक तो ठोते है, लेकिन उसमें हस्तक्षेप करने की धृष्टता नहीं करते।