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________________ जो प्रारंभ है वही अंत है अगर तुम भाव के पहले पकड़ लो तो निवारण कर पाओगे-पर्व-निवारण। तब तो बड़ा मुश्किल है। अभी तुम्हारा होश तो विचार पर भी नहीं है। अभी तो विचार भी बेहोशी में चल रहे हैं। तुमसे कोई अचानक पूछ ले, क्या सोच रहे हो? तो तुम एकदम से जवाब नहीं दे पाते। लोग कहते हैं, कुछ नहीं। उसका कारण क्या है? अगर कोई बैठा है, उससे पूछो, क्या सोच रहे हो? वह पहले ही उसका उत्तर होता है, कुछ भी नहीं सोच रहे, ऐसे ही बैठे हैं। ऐसे ही कोई बैठ सकता है? सिर्फ बुद्ध बैठते हैं। इतने बुद्ध नहीं हो सकते दुनिया में जितने कुछ नहीं जवाब देने वाले हैं। नहीं, वह सोच रहा है। उसे पता नहीं है। विचार चल रहे हैं, लेकिन उसे कुछ पता नहीं है। सब अंधेरे में हो रहा है। उससे कहो कि नहीं, जरा आंख बंद करके ठीक से कहो, कुछ तो सोच ही रहे होओगे! तब वह शायद थोड़ी कोशिश करे तो हैरान हो, कुछ नहीं, काफी सोच रहा है। विचार ही विचार चल रहे हैं-अनर्गल, असंगत, बेतुके, किसी श्रृंखला में नहीं; कुछ कारण नहीं दिखाई पड़ता कि क्यों चल रहे हैं। जैसे आस-पास मक्खियां भिनभिना रही हों, ऐसे तुम्हारे चारों तरफ विचार भिनभिना रहे हैं। उनकी भिनभिनाहट इतनी ज्यादा है कि तुम धीरे-धीरे उसके आदी हो गए हो, वैसे ही जैसे बाजार में बैठा हुआ आदमी बाजार की भिनभिनाहट का आदी हो जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि चारों तरफ कुछ हो रहा है। पता तो तब चले जब अचानक पूरा बाजार एक सेकेंड के लिए चुप हो जाए। तब उसको एकदम से चौकन्नापन मालूम पड़े कि क्या हो गया! अगर तुम कार चलाते हो तो इंजन की आवाज तुम्हें पता नहीं चलती, जब तक कि कुछ अंतर न पड़ जाए। अगर आवाज एकदम बंद हो जाए तो तुम्हें पता चलती है, या कोई नई आवाज सम्मिलित हो जाए तो तुम्हें पता चलता है। अन्यथा तुम्हें कुछ पता नहीं चलता। आदी हो जाते हो। विचार के तुम आदी हो। इसलिए कोई अचानक पूछ ले, तुम कहते हो, कुछ नहीं। वह उत्तर ठीक नहीं है। भीतर थोड़ा देखना शुरू करो। पहले विचार के साक्षी बनो। पहचानना शुरू करो कि जो भी चलता है वह जानकारी में चले। बहुत बार चूकोगे। क्योंकि होश को रखना एक सेकेंड से ज्यादा मुश्किल होगा। होश बड़ी कीमती चीज है; इतनी आसानी से नहीं मिलता। आंख खुले होने का नाम होश नहीं है। भीतर क्या चल रहा है, वह दिखाई पड़े, तब होश है। बाहर क्या दिखाई पड़ रहा है, वह होश नहीं है। तो आंख बंद करके अपने विचारों को देखना शुरू करो। बड़ा अदभुत है विचार का खेल भी, और अगर तुम देख पाओ तो बड़ा मनोरंजक है। भीतर तुम एक बड़ा ड्रामा चला रहे हो; और जिसको तुम्हीं देख सकते हो, कोई दूसरा नहीं देख सकता। बड़ी प्रतिमाएं उठती हैं; बड़ी कहानियां खेली जाती हैं, बड़े नाटक चलते हैं। तुम जरा देखने का अभ्यास बनाओ।। और लड़ो मत। नहीं तो देख न पाओगे। तुम ऐसे ही देखो जैसे फिल्म देखते हो फिल्मगृह में बैठ कर। बस देखो। रस लो एक बात में कि कोई भी चीज बिन देखी न निकल जाए, अनदेखी न निकल जाए, चूक न जाए। जैसे कभी कोई बहुत सेंसेशनल फिल्म तुम देखने जाते हो तब तुम बिलकुल सीधे बैठते हो, कुर्सी पर टिक कर भी नहीं बैठते, कि टिक कर बैठे कहीं कोई चीज चूक न जाए। तब तुम बिलकुल आगे झुके रहते हो, तत्पर, कि हर चीज पकड़ में आ जाए; एक शब्द न छूट जाए। या जब तुम कोई ऐसी बात सुनते हो जो बहुत रसपूर्ण है तो तुम ऐसे तत्पर होकर सुनते हो कि एक शब्द भी चूक गया तो श्रृंखला पकड़ना मुश्किल हो जाएगी, हाथ से धागा निकल जाएगा। ऐसी ही तत्परता से भीतर के विचारों को देखो। ___ और यह बड़ा ही उपादेय है। इससे बड़े लाभ की कोई घटना जगत में नहीं है। कुछ और देख कर तुम इतनी कीमती चीज न पा सकोगे जो विचार देख कर पा सकोगे। क्योंकि विचार देखने से तुम्हारा होश प्रगाढ़ होगा, तुम्हारा 367
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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